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है। इसलिए प० फूलचन्द्रजी ने केवल तादात्म्य सम्बन्ध को ही वास्तविक बतलाते हुए शेष दो आदि वस्तुओ के आश्रय से निष्पन्न सयोगादि सम्बन्धो को जो अवास्तविक बतलाया है वह असत्य ही है।
बात वास्तव मे यह है कि आत्मा नाम की अनादिनिधन, स्वत सिद्ध प्रतिनियत चैतन्य स्वभाव वाली वस्तु का अनादिकाल से पुद्गल नाम की अन्य अचेतन्य स्वभाव वाली वस्तु के परिणमन ज्ञानावरणादि कर्मों और शरीरादि नोकर्मों के साथ बद्ध ( मिला हुआ) एकत्व चला आ रहा है लेकिन आत्मा और कर्म तथा नोकर्म का यह मिला हुआ एकत्व सद्भत होते हुए भी आत्मा का स्वत सिद्ध निजी एकत्व नही है । अब यह बात है कि अज्ञानीजनो को इस मिले हुए एकत्व मे मिलावट के दर्शन न होकर अखण्ड एकत्व के ही दर्शन हो रहे हैं । अर्थात् अनादिनिधन स्वत सिद्ध प्रतिनियत उक्त स्वभाव वाले अखण्ड आत्मा के दर्शन उन अज्ञानी जीवो को उस मिले हुए एकत्व से पृथक् रूप मे नही हो रहे है अत समयसार आदि आध्यात्मिक ग्रन्थो मे उन अज्ञानी जीवो के सबोधनार्थ यह प्रयास किया गया है कि भो । ससारी प्राणियो । तुम्हे अपनी इस कर्म और नोकर्म रूप पुद्गलो के साथ विद्यमान मिलावट मे ही जो अनादिकाल से निजी एकत्व का दर्शन हो रहा है अर्थात् उसे तुम जो अपना स्वरूप समझ बैठे हो, वह तुम्हारा भ्रम है उसे तुम अपना निजी स्वत सिद्ध प्रतिनियत स्वरूप नही समझो, तुम्हारी यह स्थिति तो कर्म तथा नोकर्मरूप पुद्गल द्रव्य के सयोग से बन रही है, इसे अपनी स्वतन्त्र स्वरूप स्थिति समझना मिथ्या है, तुम्हारा अपना स्वत सिद्ध