SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ प्रतिनियत स्वभाव नहीं है उसका स्वत सिद्ध प्रतिनियत स्वभाव तो चैतन्य भाव ही है। इस प्रकार उक्त दृष्टान्तो, समयसार टीका के कथन तथा इसी प्रकार के अन्य प्रकरणो व ग्रन्थो के विवेचनो से यही सिद्ध होता है कि एक वस्तु के साथ दृश्यमान सयोग, आधाराधेयभाव तथा निमित्तनैमित्तिकभाव आदि सम्बन्ध स्वत.सिद्ध प्रतिनियत रूप मे गूतार्थ न होते हुए भी सद्भावात्मक रूप मे भूतार्य ही है कल्पना मात्र नहीं है । केवल इतना अवश्य है कि वे स्वाश्रित न होकर पराश्रित ही है। एक बात और है कि लोक व्यवहार में प्रवृत्त जनो का समस्त लोक व्यवहार पराश्रित होने के कारण यदि केवल कल्पित मान लिया जाय उसमे कुछ भी सद् पता न मानी जाय तो इसका परिणाम यह होगा कि अपनी-अपनी रुचि, आवश्यक्ता और परिस्थितिवश लोक व्यवहार मे प्रवृत्त रहने वाले प्रथम गुणस्थान से पष्ठ गुणस्थान तक के जीवो की उन प्रवृत्तियो को असद्भुत ही मानना होगा, ऐसी हालत मे लोक मे मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि का, विरत, अविरत और देशविरत का, मूर्ख और विद्वान का, विक्षिप्त और अविक्षिप्त का, धर्मात्मा और अधर्मात्मा का तथा पुण्यात्मा और पापात्मा का जीवो मे पाया जाने वाला भेद समाप्त ही हो जायगा। इसी तरह प्रथम गुणस्थान से द्वादश गुणस्थान तक के ससारी जीवो के ज्ञानदर्शन स्वभाव का जो उपयोगाकार परिणमन होता है उसमें उन्हे यथायोग्य पौद्गलिक हृदय, मरितप्क, तथा स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्णरूप इन्द्रियो व बाह्य प्रकाशादिक की जो अपेक्षा रहा करती है एव त्रयोदश गुणस्थान मे जीवो की योगप्रवृत्ति मे जो मन, वचन और काय की अपेक्षा रहा करतो
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy