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________________ १६७ एक पदार्थ के साथ दूसरे पदार्थ के दृश्यमान स्पर्श आदि सयोगो को भूलार्थ ही प्रतिपादित किया है । यथा यथा खलु विसनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानताया सलिलस्पृष्टत्व भूतार्थमपि एकान्तत सलिलास्पृश्य विसनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् । - इसमे यह बात झलकती है कि जल मे विद्यमान कमलपत्र का जल के साथ दृश्यमान स्पर्श यद्यपि कमलपत्र का स्वत: सिद्ध प्रतिनियत स्वभाव नही है फिर भी जल मे नवा हुआ तो वह है ही । अत उसका वह जल मे हवा हुआ रहना भूतार्थ आगे भी वे इस प्रकार लिखते हैं कि "यथा चापा सप्ताचि प्रत्ययोष्ठय समाहितत्त्व पर्यायेणानुभूयमानताया सयुक्तत्व भूतार्थमपि एकान्तत शोतमप्स्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् ।" इसमे भी यह बात झलकती है कि अग्नि के साथ सयोग को प्राप्त जल को उष्णता यद्यपि जल का स्वत सिद्ध प्रतिनियत स्वभाव नही है उसका स्वत सिद्ध प्रतिनियत स्वभाव तो शोतता ही है फिर भी अग्नि के साथ उसका सयोग तो है ही । अत वह भी भूतार्थ ही है । आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त दोनो उदाहरण उस प्रकरण दिये हैं जहा आत्मा के स्वत सिद्ध प्रतिनियत चैतन्यस्वभाव का वर्णन किया है । अर्थात् वे यह कहना चाहते है कि यद्यपि आत्मा अनादिकाल से पुद्गल कर्म और नोकर्म के साथ स्पृष्ट एव वद्ध होकर चला आ रहा है यह नही समझना चाहिये कि वह उनके साथ स्पृष्ट एव बद्ध नही है, परन्तु इतना अवश्य है कि वह स्पृष्टता एव बद्धता उसका ( आत्मा का ) स्वत सिद्ध 1
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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