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________________ आदि को बुद्धिपूर्वक ही पानी मे धोकर पकाने की दृष्टि से आवश्यक पानी से भरी हुई वटलोई मे रखकर आग जलते चूल्हे पर चढाता है, भोजन को स्वादिष्ट बनाने की दृष्टि से वह उसमे नमक आदि का आवश्यकतानुसार उपयोग करने का भी बुद्धिपूर्वक ध्यान रखता है, गीत आदि से वचाव के लिए कपडे बद्धिपूर्वक ही पहिने जाते है, रोग दूर करने के लिये औषधियो का निर्माण व सेवन बुद्धिपूर्वक ही किया जाता है, कही पर जल्दी पहुँचने की दृष्टि से यथायोग्य रेलगाडो, मोटर, हवाई जहाज आदि का बुद्धिपूर्वक ही उपयोग किया जाता है, अजीविका सचालन के लिए एक व्यक्ति व्यापार करता है, दूसर। नौकरी करता है, तीसरा कृपि करता है और चौथा विविध प्रकार की कलाओ मे से किसी कला को अपनाता है । ये भिन्नभिन्न तरीके बुद्धिपूर्वक ही लोक मे अपनाये जाते हैं तथा साधनो को अनुकूलता या प्रतिकूलता होने पर प्राणियो को उसमे क्रमश सफलता या असफलता भी प्राप्त होती है और इस तरह वे यथायोग्य सफलता मिलने पर सुखी तथा असफलता मिलने पर दुखी होते देखे जाते है। इसी तरह कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ने लोकहित भावना की दृष्टि से ही समयसार आदि ग्रन्थो की बुद्धिपूर्वक रचना की है और इसी तरह प० फूलचन्द्रजी ने भी जैनतत्त्वमीमासा अपनी दृष्टि से लोगो को जन-सस्कृति का सही ज्ञान कराने के लिए बुद्धिपूर्वक हा लिखी है। इन उदाहरणो से यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि दो आदि वस्तुओ मे पाये जाने वाले सयोगादि सभी सम्बन्ध कल्पित न होकर वास्तविक ही है। विचार कर देखा जाय तो यही स्थिति अध्यात्म मे भी मिलेगी। समयसार गाथा १४ की टीका मे आचार्य अमृतचन्द्र ने
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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