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इस प्रकार घी और कटोरी के पृथक्-पृथक् अस्तित्व का ज्ञान रखते हुए भी लोक व्यवहार में प्रवृत्तजनो की घी को कटोरी मे बुद्धिपूर्वक रखने की प्रवृत्ति, घी के परिमाण के अनुरूप कटोरी मे छोटे-बड़े रूप पर उनका बराबर लक्ष्य बना रहना और घी को विकृति से बचाने के लिए कटोरी की प्रकृति एव स्वच्छता की ओर उनका ध्यान जाना इत्यादि वातो से यह निष्कर्ष सहज ही निकल आता है कि दो आदि वस्तुओ में दिखने वाले सयोग, आधाराधेयभाव और निमित्त नैमित्तिक भाव आदि विविध प्रकार के जो भी सम्बन्ध जब और जहाँ सम्भव हो, वे सब सबध वास्तविक ( सद्भूत) ही माने जाने योग्य है कल्पित (असद्भूत) नही, तथा ऐसा मान लेने पर भी उन दो आदि वस्तुओ की एव उनके गुणो और पर्यायो की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने मे कोई बाधा उपस्थित नही होती है ।
दो आदि वस्तुओ की स्वरूपसत्ता और प्रदेशसत्ता को पृथक्-पृथक् मानते हुए भी उनमे यथायोग्य पाये जाने वाले सयोग, आधारधेयभाव और निमित्त नैमित्तिकभाव आदि सम्बन्धो को वास्तविक (सद्भूत) मानने वाले व्यवहार मे प्रवृत्त जन प० फूलचन्द्र जी की दृष्टि में भले ही अज्ञानी रहें, लेकिन लोक मे उन्हे अज्ञानी न मानकर तब तक ज्ञानी ही माना जाता है जब तक उनकी समझ और प्रवृत्ति मे लोक विरुद्धता और तत्त्व विरुद्धता नही पायी जाती है ।
तात्पर्य यह है कि अध्यात्म तथा लोक दोनो मे ज्ञानी और अज्ञानी कहलाने की समान स्वरूप मर्यादाये हैं । जैसे अपने प्रतिनियत स्वरूप और प्रदेशो की अपेक्षा पृथक-पृथक् विद्यमान कटोरी और घी में आधाराधेयभाव रूप सम्बन्ध की