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प० फूलचन्द्र जी के जिस कथन का उद्धरण मैंने ऊपर दिया है उसमे उन्होने बतलाया है कि "एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ जो सयोग सम्बन्ध या आधाराधेय भाव कल्पित किया जाता है उसे अपरमार्थभूत ही जानना चाहिये" साथ ही इसकी पुष्टि के लिये वहा पर उन्होने कटोरी में रक्खे हुए घी का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि घी का आधार घी ही है कटोरी उसका वास्तविक आधार नही है और इसमे उन्होने वही पर यह तर्क उपस्थित किया है कि यदि कटोरी घी का वास्तविक आधार है तो कटोरी को ओधा करने पर वह फिर गिर क्यो जाता है ?
प० फूलचन्द्र जी के इस कथन के सम्बन्ध मे मेरा कहना है कि लोक व्यवहार में प्रवृत्तजन दो आदि वस्तुओ मे आधाराधेय भाव की वास्तविकता (सद्भावात्मकता) को समझकर ही आवश्यकता पड़ने पर कटोरी मे घी रखने की चेष्टा करते है। इतना ही नहीं, कटोरी मे घी रखते समय घी के परिमाण के अनुरूप कटोरी के छोटे-बडे रूप पर भी उनका ध्यान दौड जाता है तथा इसके साथ ही उस समय वे घी को विकृति से बचाने के लिये कटोरी की प्रकृति व उसकी स्वच्छता आदि पर भी लक्ष्य रख लिया करते हैं। लेकिन इतना सब कुछ करते हुए भी उनके ध्यान में यह बात रहा करतो है कि घी को कटोरी में रख देने पर भी घो हमेशा घी ही बना रहता है वह कदापि कटोरी नहीं बन जाता है और कटोरी हमेशा कटोरी ही बनी रहती है वह कभी घी नही बन जाती है क्योकि घी और कटोरी दोनो वस्तुयें अपने स्वरूप और प्रदेशो की भिन्नता के कारण पृथक्-पृथक् हो हैं ।