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________________ १५६ प्रदेश सत्ता को अपेक्षा पृथक्-पृथक् स्वीकार किया गया है वहा दूसरी ओर आकाश तथा अन्य सभी वस्तुओ मे विद्यमान आधाराधेयभाव की वास्तविकता को भी स्वीकार किया गया है । अब यदि दो आदि वस्तुओ मे यथासम्भव विद्यमान सयोग आधाराधेयभाव एव निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्धो को को वास्तविक न मानकर केवल कल्पना का ही विषय मान लिया जाता है तो इस तरह आकाश द्रव्य के साथ विद्यमान विश्व की अन्य सभी वस्तुओ के आधाराधेयभाव रूप सम्बन्ध को भी केवल कल्पनामात्र का विषय मानने का प्रसग उपस्थित हो जायगा। ऐसी दशा मे आकाश द्रव्य की निरर्थकता सिद्ध हो जाने से वह भी कल्पना मात्र का विपय रह जायगा । इतना ही नहीं, आकाश की तरह निरर्थक बन जाने की यह समस्या धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और समस्त काल द्रव्यो के विपय मे भी खडी हो जायगी। उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार आकाश शब्द का पारिभाषिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ अपनी-अपनी प्रदेशसत्ता के अनुसार अवगाह्यमान विश्व के सभी द्रव्यो को अपने अन्दर समा लेना है उसी प्रकार धर्म शब्द का पारिभापिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ स्थिति प्राप्त जीव और पूद्गल द्रव्यो को अपने-अपने कारणो के आधार पर होने वाली उनकी गति परिणति मे अवलम्बन होना, अधर्म शब्द का पारिभापिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ गति प्राप्त जीव और पुद्गल द्रव्यो को अपने-अपने कारगो के आधार पर होने वाली उनकी अवस्थिति मे अवलम्बन होना तथा काल शब्द का पारिभाषिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ विश्व के सभी पदार्थों मे स्वभावत एव कार्य कारणभाव के आधार पर ध्रौव्य तथा उत्पाद और व्यय
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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