________________
१६०
को स्थायीपनेरूप ( सार्वकालिक ) एव समय, आवलो, घडो, घण्टा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष आदि के रूप मे अस्थायीपनेरूप वृत्तिता मे अवलम्बन होना है । इसलिये जिस प्रकार आकाश और विश्व के अन्य सभी पदार्थों से आधाराधेयभाव का सद्भाव स्वीकार किया गया है उसी प्रकार धर्म द्रव्य का स्थिति प्राप्त जीव और पुद्गल द्रव्यो की गति परिणति के के साथ, अधर्म द्रव्य का गति प्राप्त जीव और पुद्गल द्रव्यो की अवस्थिति रूप परिणति के साथ तथा कालद्रव्य का विश्व के समस्त पदार्थों की स्थायापने और अस्थायीपने रूप वृत्तिता के साथ अवलम्बन रूप से निमित्त नैमित्तिक भाव का भी सद्भाव स्वीकार किया गया है । इस तरह दो आदि वस्तुओ मे यथासम्भव विद्यमान, सयोग, आधाराधेयभाव एव निमित्त नैमित्तिकभाव रूप सम्बन्धो को वास्तविक न मानकर केवल कल्पनामात्र का विषय मान लेने से जैसे आकाश द्रव्य की निरर्थकता का प्रसग मैं ऊपर बतला चुका हूँ वैसे ही धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य और सम्पूर्ण काल द्रव्यो की निरर्थकता का भी प्रसग उपस्थित हो जायगा और तब आकाश द्रव्य की तरह धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य तथा सम्पूर्ण काल द्रव्य ये सभी द्रव्य भी केवल कल्पना मात्र के ही विषय रह जावेगे ।
इसी प्रकार आत्मा के स्वभाव ज्ञान और विश्व के अन्य सभी पदार्थों मे पाये जाने वाले ज्ञेयज्ञायक भाव अथवा प्रमाणप्रमेयभाव रूप सम्बन्धो की भी सयोग, आधाराधेयभाव एव निमित्त नैमित्तिकभाव आदि सम्बन्धो की तरह द्वाश्रितता की वजह से अवास्तविकता सिद्ध हो जाने पर एक तरफ तो प० फूलचन्द्रजी का यह लिखना है कि “जैन धर्म मे तत्त्वप्ररूपण का मुख्य आधार केवल ज्ञान है" ( जैननत्त्वमीमासा पृष्ठ २९०