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है वे भो भ्रम में है अर्थात् व्यवहार विमूढ है। जो लोग व्यवहार मय के विषय को सर्वथा अभावात्मक अर्थात् कल्पित न मानकर व्यवहार रूप से सत्य मानते हैं वे मम्यग्जानी हैं। क्योकि व्यवहार का अर्थ वस्तु का भेदापित अयमा पश्रित स्थिति ही होती है सर्वथा अभावात्मक स्थिति व्यवहार शब्द का अर्थ नही हो सकता है जमे गधे के सीग सर्वथा अभावात्मक होने से व्यवहार रूप नही हैं अतएव ही वे व्यवहारनय के विपय नही है लेकिन जीव का समार स्वाभाविक न होकर वैभाविक है अर्थात् कर्मोदय जन्य होने से पराश्रित अर्थात् व्यवहार रूप है अतएव वह व्यवहारनय का विपय है। ऐसा तो नहीं है कि जोव को ससार रूप परिणति होती हो नहीं है । स्वय प० फूलचन्द्र जी ने भो जीव की ममार अवस्था को वास्तविक स्वीकार किया है लेकिन इसका यदि वे यह अर्थ लेना चाहते हैं कि वह सर्वथा निश्चयनय का विषय है तो वे भ्रम मे हैं क्योकि जहा जीव की तदात्मक परिणति होने के कारण वह निक्रय नय का विषय है वही कर्मोदयजन्य होने से वह व्यवहारनय का भी विषय है। जैन-सम्मृति की अनेकान्तात्मक तत्ता व्यवम्या को ध्यान में रखकर ही प० फूलचन्द्रजी को प्रकृत विषय पर विचार करना चाहिये क्योकि तब कोई विरोव पंदा ही नहीं होगा।
जन-सस्कृति मे आकाश द्रव्य को आधार तथा विश्व को अन्य मभी वस्तुओ को आवेय स्वीकार किया गया है। आकाश शब्द का पारिभापिक और व्युत्पत्तिपरक अर्थ आधारता गभित है इसलिये कहना चाहिये कि जैन-सस्कृति मे जहा एक ओर आकाश द्रव्य को और उससे भिन्न अन्य सभी द्रव्यो को अपनी-अपनी स्वत सिद्ध और प्रतिनियत स्वरूप सत्ता एव