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का भो सम्बन्ध नही है" सही नहीं है, क्योकि प्रत्येक द्रव्य और गुणो तथा पर्यायो को स्वतन्त्रता के साथ दो आदि वस्तुओ मे पाये जाने वाले सयोग, आधाराधेयभाव, निमित्तनैमित्तिक भाव आदि सम्बन्धो का कुछ भी विरोध नहीं है।
प्राय देखने मे आता है कि लोक व्यवहार मे प्रवृत जन जिस प्रकार दो आदि वस्तुओ एव उनके गुणो और पर्यायो को पृथक्-पृथक् अनुभव मे लाते हैं उसी प्रकार वे उनमे यथासम्भव विद्यमान सयोग, आधाराधेयभाव तथा निमित्तनैमित्तिक भाव आदि सम्बन्धो को भी सतत अनुभव मे लाते रहते है इसलिये जिस प्रकार लोक व्यवहार में प्रवृत्त जनो के पहले प्रकार के अनुभव के आधार पर दो आदि वस्तुओ एव उनके गुणो और पर्यायो का पृथक्पना वास्तविक है उसी प्रकार उनके दूसरे प्रकार के अनुभव के आधार पर उन दो आदि वस्तुओ मे यथा सम्भव विद्यमान सयोग, आधाराधेयभाव तथा निमित्तनैमित्तक सम्वन्ध आदि को भी वास्तविक ही समझना चाहिये। यह बात दूसरी है कि तादात्म्य सम्बन्ध मे एकाश्रयता होने से वह जहा निश्चयनय का विषय है वहा सयोगादि सम्बन्धो मे अनेकाश्रयता होने से वह व्यवहारनय का विषय है । लेकिन व्यवहारनय का विपय कल्पित अर्थात् सर्वथा अभावात्मक है निश्चयनय का विपय ही सद् भावात्मक है ऐसा नही है । केवल दोनो मे इतना अन्तर है कि तादात्म्य सम्बन्ध मिश्चयनय का विषय है इसलिये वह निश्चय रूप मे वास्तविक है और सयोगादि सम्वन्ध व्यवहारनय के विषय है इसलिये वे व्यवहार रूप मे वास्तविक है । जो लोग व्यवहारनय के विषय को कल्पित अर्थात् सर्वथा अभावात्मक मानते है वे भ्रम मे है तथा जो लोग व्यवहारनय के विषय को निश्चयनय का विषय मानते