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चाहिये । स्पष्ट है कि माने गये सम्बन्धो मे एकमात्र तादात्म्य सम्बन्ध ही परमार्थभूत है । इसके सिवा निमित्तादि की दृष्टि से अन्य जितने भो सम्वन्ध कल्पित किये गये है उन्हें उपचरित अतएव अपरमार्थभूत ही जानना चाहिये । वहुत से मनीपी यह मानकर कि इससे व्यवहार का लोप हो जायगा ऐसे कल्पित सम्बन्धो को परमार्थभूत मानने की चेष्टा करते हैं । परन्तु यही उनकी सबसे बडी भूल है, क्योंकि इस भूल के सुधारने से यदि उनके व्यवहार का लोप होकर परमार्थ की प्राप्ति होती है तो अच्छा ही है ऐसे व्यवहार का लोप भला किसे अभीष्ट नही होगा । इस ससारी जीव को स्वय निश्चय रूप बनने के लिये अपने अनादिकाल से चले आ रहे इस अज्ञानमूलक व्यवहार का ही तो लोप करना है । उसे ओर करना ही क्या है ? वास्तव मे देखा जाय तो यही इसका परम ( सम्यक् ) पुरुषार्थ है, इसलिये व्यवहार का लोप हो जायगा इस भ्रान्तिवश परमार्थ से दूर रह कर व्यवहार को ही परमार्थभूत समझने की चेष्टा करना उचित नही है ।"
( जैनतत्वमीमासा पृष्ठ १७ - १८ विषय प्रवेश प्रकरण ) आगे इस पर विचार किया जाता है
जैन - सस्कृति की मान्यता यह है कि वही वस्तु द्रव्य सज्ञा को प्राप्त होती है जिसकी अपनी स्वत सिद्ध और प्रतिनियत स्वरूप सत्ता एव प्रदेश सता हो, इसलिये यद्यपि प० फूलचन्द्र जी के इस कथन से मैं सहमत हू कि " प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है और इस प्रकार उसके गुण और पर्याय भी स्वतन्त्र है" परन्तु इससे उनका ( प ० फूलचन्द्र जी का ) यह निष्कर्ष निकालना कि "इसलिये विवक्षित किसी एक द्रव्य का या उसके गुणो और पर्यायो का अन्य द्रव्य या उसके गुणो और पर्यायो के साथ किसी प्रकार