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________________ १५५ अपरमार्थभूत, अवास्तविक और उपचरित बतलाने का प्रयत्न किया है । वे लिखते है "प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है। इसमे उसके गुण और पर्याय भी इसी प्रकार स्वतन्त्र है-यह कथन आ ही जाता है। इसलिये विवक्षित किसी एक द्रव्य का या,उसके गुणो और पर्यायो का अन्य द्रव्य या उसके गुणो और पर्यायों के साथ किसी प्रकार भी सम्बन्ध नही है। यह परमार्थ सत्य है। इसलिये एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ जो सयोगसम्बन्ध या आधाराधेयभाव आदि कल्पित किया जाता है उसे अपरमार्थभूत ही जानना चाहिये। इस विषय को स्पष्ट करने के लिये कटोरी में रखा हुआ घो लीजिये । हम पूछते है कि उस घी का परमार्थभूत आधार क्या है ? कटोरी या घी ? आप कहोगे कि घी के समान कटोरी भी है तो हम पूछते हैं कि कटोरी को ओधा करने पर वह फिर गिर क्यो जाता है ?" जो जिसका वास्तविक आधार होता है उसका वह कभी त्याग नही करता "इस सिद्धान्त के अनुसार यदि कटोरी भी घी का वास्तविक आधार है तो उसे (घी को ) कटोरी को कभी भी नही छोडना चाहिये । परन्तु कटोरी को ओधा करने पर वह कटोरी को छोड ही देता है । इससे मालूम पडता है कि कटोरी घी का बास्तविक आधार नही है। उसका वास्तविक आधार तो घी है क्योकि वह उसे व भी नही छोडता । वह चाहे कटोरी मे रहे चाहे भूमि पर रहे या चाहे हवा मे विलीन हो जावे । वह रहेगा घी ही। यहा दृष्टान्त घी रूप पर्याय को द्रव्य मान कर दिया गया है, इसलिये घी रूप पर्याय बदल जाने पर वह बदल जाता है यह कथन प्रकृत मे लागू नही होता। यह एक उदाहरण है। इसी प्रकार कल्पित किये गये जितने भी सम्बन्ध है उन सब के विषय मे इसी दृष्टिकोण से विचार कर लेना
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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