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________________ १५४ भावरूप परिणत होता है उस समय वह स्वयं शुभ है" इत्यादि कथन का यह निष्कर्ष निकालना अयुक्त है कि "कार्य उपादान के बल पर ही उत्पन्न हो जाता है और निमित्त वहा कचित्कर ही बना रहता है" अथवा यह निष्कर्ष निकालना अयुक्त है कि "कार्योत्पत्ति मे उपादान ही मुख्य हेतु हे निमित्त तो गोणस्प से ही हेतु होता है" इतना अवश्य है कि कार्यरूप परिणति उपादान की ही होती है निमित्त की नहीं, वह तो वहा पर उपादान की कार्यरूप परिणति नहायक मात्र होता है अत इस दृष्टि से यदि उपादान को मुख्य और निमित्त को गौण माना जाता है तो फिर इसमे कोई विरोध की बात नहीं है । परन्तु कार्योत्पत्ति मे जहा तक उपादान और निमित्त के बलाबल का प्रश्न है तो यही कहा जायगा कि वस्तु मे कार्य की उपादानशक्ति के अभाव मे जहा निमित्त कुछ नही कर सकता है वहा निमित्तो के अभाव मे भी उपादान शक्ति मुमुप्त ही रहा करती है । उस तरह अपने अपने ढंग की शक्ति के धारक होने से उपादान और निमित्त दोनो ही शक्तिशाली है अर्थात् कार्यात्पत्ति मे दोनो ही एक दूसरे का मुख ताकने वाले है । इतना होने पर भी यह बात अवश्य है कि जहा उपादानपरक कथन की विवक्षा होती है वहा उपादान को मुख्यता मिल जाती है और जहा निमित्तपरक कथन की विवक्षा होती है वहा निमित्त को मुख्यता मिल जाती है तथा एक की मुख्यता होने पर दूसरा अपने आप गौण हो जाता है । जिस प्रकार प० फूलचन्द्र जी ने जीव और कर्म के सश्लेप रूप सम्बन्ध को अपरमार्थभूत, अवास्तविक और उपचरित वतलाया है उसी प्रकार उन्होने दो आदि वस्तुओ मे पाये जाने वाले आभाराधेयभाव आदि सम्बन्धो को भी
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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