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१५३ ( अभावात्मक ) माना जाय तो यह मान्यता अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष एव युक्ति के विरुद्ध पडती है ।
यहा पर एक बात और ध्यान मे देने योग्य है कि आत्मा के ससार को वास्तविक और कर्म के साथ उसकी बद्धता को उपचरित मानने मे प० जी का लक्ष्य यह है कि वे आत्मा के ससार का कर्मवद्धता के साथ निमित्तनैमित्तिक भावरूप कार्यकारणभाव को कार्यकारी मानने के लिये तैयार नही है वे केवल उपादानोपादेय भावरूप कार्यकारणभाव के आधार पर ही आत्मा की ससार दशा और मुक्ति दशा की सस्थापना कर लेना चाहते है। यही सवब है कि उन्होने अपने उक्त कथन मे आगम के आधार पर यह लिखा है कि "जिस समय आत्मा शूभ भावरूप परिणत होता है उस समय वह स्वय शुभ है और जिस समय आत्मा अशुभ भावरूप परिणत होता है उस समय वह स्वय अशुभ है तथा जिस समय आत्मा शुद्धभावरूप परिणत होता है उस समय वह स्वय शुद्ध है।" प० जी के इस कथन के विषय मे मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हैं कि "जिस समय आत्मा शुभ भावरूप परिणत होता है उस समय वह स्वय शभ है' इत्यादि कथन को तो सभी लोग सत्य मानते हैं परन्तु इस कथन मे सिर्फ इतनी बात बतलायी गयी है कि "आत्मा की शुभ भावरूप परिणति मे आत्मा शभ होता है, अशुभ भावरूप परिणति मे अशुभ होता है और शुद्धभावरूप परिणति मे शुद्ध होता है" अव प्रश्न यह है कि ये परिणतिया आत्मा की किन कारणों से होती है ? तो इसके समाधान के लिये हमे आवश्यकतानुसार उपादान और निमित्त दोनो प्रकार के कारणो का प्रतिपादन करना जरूरी हो जायगा। इसलिये आगम के आधार पर किये गये "जिस समय आत्मा शभ