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________________ १५१ केवल यह बतलाते हैं कि कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्त स्वयमेव मिल जाते है उन्हे जुटाना नही पड़ता है और तव उपादान भी अपने स्वकाल के अनुसार अपने आप (निमित्तो के सहयोग के बिना ) कार्यरूप परिणत हो जाया करता है, तो इस विपय में मेरा कहना यह है कि निमित्तो को जुटाने न जुटाने की बात अलग है स्थान-स्थान उस पर तो आगे विचार किया जायगा, यहा पर सिर्फ इस बात पर विचार करना है कि उपादान निमित्त के सहयोग के विना स्वपरप्रत्यय कार्यरूप परिणत हो सकता है क्या ? इस प्रश्न के समाधान के प्रसग में हमारे सामने उन घडो का दृष्टान्त उपस्थित हो जाता है जिनको उत्पत्ति के लिए उपादानभूत मिट्टी का सद्भाव रहते हुए भी कुम्भकार के तदनुकूल व्यापार के अभाव मे वह मिट्टी अपना परिणमन घडो के रूप में करने में असमर्थ रहा करती है तथा कुम्भकार की कुशलता और अकुशलता का तारतम्य उन घडो की सुन्दरता और असुन्दरता मे तारतम्य पैदा करता रहता है । इस तरह कार्यों और कारणो मे उपादानोपादेयभाव की तरह यह प्रत्यक्ष सिद्ध निमित्त नैमित्तिक भाव की स्थिति रहते हुए भी जनसाधारण के लिए अनुपयोगी केवल ज्ञान की छाप लगाकर "जव जो होना होता है सो होता है" इत्यादि निमित्तों की अवहेलना करने वाला एकान्त रूप वचन का प्रयोग उचित नहीं है। केवलज्ञान द्वारा की समस्त पर्यायो की कालिक अनुस्यूतता एव मे क्षणिक उपादान आदि की व्यवस्था किस आगे प्रकाश डालूंगा, यहा पर तो प्र बढाया जा रहा है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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