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________________ १५० अत्र यदि उपचरित शब्द का दूसरा अर्थ यह स्वीकार किया जाय कि कर्म और आत्मा ये दोनो परस्पर मश्लिष्ट तो है फिर भी यह सरले चूकि दो आदि पदार्थों में हो होता है. अत एकाश्रयता का अभाव रहने से इसे उपचरित माना गया है तो ऐमी उपचरितता को मानने मे कोई विरोध नहीं है क्योकि यह तो सभी मानते हैं कि बद्धता आत्मा का स्वत सिद्ध स्वभाव नही है किन्तु कर्म ओर आत्मा का जो एकमेक पनेरुप मेल हो रहा है उसी का नाम बद्धता है अत उसमे एकाश्रयता कैसे आ सकती है ? फिर भी वह पूर्वोक्त आगम प्रमाणों के आधार पर आत्मा को ममाररूप उस विकारी अवस्था निमित्त मिद्ध होती है जिसे प० फूलचन्द्रजी ने वास्तविक स्वीकार किया है | आगम के अलावा प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष और तर्क भी यह बतलाते है कि उपादान की स्वपरप्रत्यय कार्य परिणति मे निमित्त कारणभूत वस्तुओं का योगदान लेना आवश्यक होता है और ऐसा योगदान प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उपादान से होने वाली कार्योत्पत्ति के लिए लिया भी जाता है । प० फूलचन्द्रजी भी इससे परिचित हैं । इतना ही नही, वे स्वय उपादान की कार्य परिणति मे निमित्तभूत वस्तुओ का योगदान न लेते हो-यह बात नही है । वे अपनी जीवन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भोजन मे प्रवृत्त होते हैं, व पहिनते हैं, रुपया-पैसा लेते-देते हैं और कही जाने के लिए वाहनो का भी उपयोग करते है । इस तरह उनके सामने भी कार्य सिद्धि मे निमितो की सार्थकता स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नही है । यदि प० पूलचन्द्रजी यह कहते हैं कि कार्योत्पत्ति के अवसर पर निमित्तो को उपस्थिति का निषेध वे नही करते हैं
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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