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________________ १४४ के स्वप्रत्यय न होने का कारण यह है कि प्रत्येक द्रव्य, के जितने अश ( प्रदेश ) नियत है उनमे कभी घटा वढी नही होती है। इसका आशय यह है कि पुद्गल के दो अरणु मिल कर द्वयगुक नाम का एक मिला हुआ द्रव्य भले ही बन जावे परन्तु उम मिली हुई अवस्था मे अरणु सर्वदा एक प्रदेश वाला ही रहेगा जैसा कि अपनी पृथक अवस्था मे वह एक प्रदेश वाला रहता है। इसी प्रकार द्वयणुक भी हमेशा दो प्रदेश वाला ही रहेगा। अर्थात् अणु कभी दो आदि प्रदेशो वाला नही होता हमेशा एक प्रदेश वाला हो रहा करता है । इसी प्रकार द्वयाक कभी एक प्रदेश वाला या तीन आदि प्रदेशो वाला नही होता हमेशा दो प्रदेश वाला ही रहा करता है। यहा इस कथन का यह आशय नही लेना चाहिये कि द्वयक कभी विघटित नही होता अथवा मिलकर व्यरणक आदि नही बनता, किन्तु यही आशय लेना चाहिये कि जब तक दो अणु परस्पर वन्ध को प्राप्त हैं तभी तक वह द्वयणुक है विघटित होने पर द्वयरणुक सज्ञा भी समाप्त हो जायगी। इसी प्रकार द्वयणुक से व्यरणक बन जाने पर भी द्वयणुक सज्ञा समाप्त हो जायगी। यही व्यवस्था आकाशादि द्रव्यो के विपय मे भी जानना चाहिये। अर्थात् जन-सस्कृति मे आकाशद्रव्य को नियत परिमाण मे अनन्त प्रदेशो, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और प्रत्येक जीव द्रव्य को नियत परिमाण मे असख्यात प्रदेशी और प्रत्येक कालद्रव्य को नियत परिमाण मे एक प्रदेशी जो स्वीकार किया गया है तो इनके प्रदेशो मे कभी घटा बढी होने वाली नही है। जीवो मे जो शरीर के आधार पर सकोच अथवा विस्तार उनके आकार का होता है तो वहा पर भी प्रदेशो की घटा वढी नही होती है। इस प्रकार यह निश्चित हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्य मे प्रदेशो की घटा वढी के आधार पर कोई द्रव्यपर्याय नहीं बनती
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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