SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४५ है उनमे तो केवल परद्रव्य के साथ होने वाली स्पृष्टता अथवा बद्धता के आधार पर ही यथायोग्य द्रव्यपर्याये बनती है और चूकि उनकी वे पर्याये परद्रव्य के स्पृष्टता अथवा बद्धतारूप सयोग के आधार पर ही बनती है अत वे सभी द्रव्यपर्याये स्वपरप्रत्यय ही है स्वप्रत्यय नही। . बद्धजीवद्रव्यों की यथायोग्य पुद्गल द्रव्य के साथ विद्यमान बद्धतारूप सयोग का सर्वथा विच्छेद होने पर जो अबद्धपर्याये होती है इसी प्रकार बद्धपुद्गल द्रव्यो की भी यथायोग्य जीवद्रव्यो अथवा अन्य पूगलद्रव्यो के साथ विद्यमान बद्वतारूप सयोग का विच्छेद होने पर जो अबद्धपर्याये होती है उन सब पर्यायो को भी स्पृष्टद्रव्यपर्यायो के अन्तर्गत समझना चाहिये। क्योकि बद्धतारूप सयोग का विच्छेद हो जाने पर भी स्पृष्टतारूप सयोग तो वहा पर बना ही रहता है । इस प्रकार इन सब द्रव्यपर्यायो को स्वपरप्रत्यय पर्याये मानने मे कोई बाधा उपस्थित नही होती है। बद्धजीवो और पुद्गलो की बद्धपर्यायो का विच्छेद होने पर जो पर्याये होती हैं उन्हे यदि अवद्धपर्याय हो कहा जाय तो वह पर्याय भी स्वपरप्रत्यय हो है क्योकि उस पर्याय मे परद्रव्य के साथ पूर्व में विद्यमान वद्धतारूप सयोग का विच्छेद निमित्तकारण होता है । जीव का पुद्गल के साथ बढ़तारूप संयोग वास्तविक है जीव का पुद्गलद्रव्य के साथ जो वद्धतारूप सयोग होता है वह वास्तविक है परन्तु प० फूलचन्द्रजी उसे अवास्तविक (उपचरित) मानते है जैसा कि उनके निम्नलिखित कथन से स्पष्ट होता है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy