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________________ १४३ होकर केवल स्पृष्ट होकर हो रह रहे है। इन्हे छोड कर सम्पूर्ण ससारी जीव और सम्पूर्ण स्कन्धरूप पुद्गल ये सव बद्धस्पृष्ट पदार्थ हैं । क्योकि ससारी जीव तो कर्म व नोकर्मरूप पुद्गलो के साथ तथा पुद्गल जीवो या दूसरे पुद्गलो के साथ वद्धता को भी प्राप्त हो रहे है और स्पृष्ट भी हो रहे है। इस प्रकार आकाश, धर्म, अधर्म, समस्त काल, मुक्तजीव और अणुरूपता को प्राप्त पुद्गल इन सब पदार्थो की परस्पर एक दूसरे पदार्थ के साथ विद्यमान स्पृष्टता रूप सयोग के आधार पर जो पर्याये वनती रहती है वे सब स्पृष्टद्रव्य पर्याये है और पुद्गल के साथ बद्धजीवो तथा जीव व अन्य पुद्गलो के साथ वद्ध पुद्गलद्रव्यो की जितनी स्पृष्टतारूप सयोग के आधार पर द्रव्यपर्याये होती हैं वे सब तो स्पृष्ट द्रव्यपर्याये है तथा जितनी बद्धतारूप सयोग के आधार पर द्रव्यपर्यायें होती है वे सब बद्धद्रव्यपर्याये है । ये स्पृष्टरूप और बद्धरूप दोनो ही प्रकार की सभी पर्याये व्यजनपर्याय कहलाती है और ये सभी स्वपरप्रत्यय ही हुआ करती हैं । क्योकि ये पर्याये पर (निमित्त) का योग पाकर स्व (उपादान) मे उत्पन्न हुआ करती है । अर्थात् जिस पदार्थ मे वह पर्याय उत्पन्न होती है वह उसमे उपादान कारण होता है और जिन पदार्थो के योग से वह पर्याय उत्पन्न होती है वे उसमे निमित्तकारण होते है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह वात निर्णीत हो जाती है कि स्वभाव, गुण या अर्थरूपपर्याये तो स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दोनो प्रकार की होती है लेकिन स्पृष्ट और बद्ध दोनो ही प्रकार की द्रव्य या व्यजनरूप पर्याये केवल स्वपरप्रत्यय ही हुआ करती है स्वप्रत्यय नही होती। द्रव्य या व्यजनपर्यायो
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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