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________________ xvi उनकी मान्यता का गम्भीर अध्ययन, दूसरे उनकी मान्यता सम्बन्धी विभिन्न विपयो पर पुस्तको की रचना तथा प्रकाशन, तीसरे प्रचार कार्य। ऐसी ही व्यवस्था हमने सोनगढ की मान्यता के सम्बन्ध मे की है। सोनगढ की मूल मान्यता का अध्ययन तथा उसका आचार्य परम्परा से मिलान तो पूर्ण हो चुका है, अब इस ही आधार से साहित्य का निर्माण होना है। इसको भी हमने दो भागो मे रक्खा है एक प्रचारोपयोगी साहित्य तथा दूसरा स्थायी साहित्य । प्रचारोपयोगी पुस्तकें भी तय्यार हो चुकी हैं । पण्डित फूलचन्द जी की जैनतत्वमीमासा की मीमासा यही पुस्तक है । शेष सात आठ पुस्तको के भी शीघ्र प्रकाशन का सकल्प है । इस प्रचारोपयोगी साहित्य के प्रचार के साधन प्रेस को मजबूत करके फिर प्लेट-फार्म से भी प्रचार का व्यापक कार्यक्रम शुरू किया जायगा। जहाँ तक स्थायी साहित्य की बात है इसके सम्बन्ध में सेवक : समाज मोक्षमार्ग प्रकाशक, पण्डित प्रवर और स्वामी जी की मान्यताओ के तुलनात्मक अध्ययन की भूमिका के साथ, समयसार और कलश, मोक्षमार्ग प्रकाशक की तरह महर्षि कुन्द कुन्द और महर्षि अमृत चन्द की मान्यताओ का स्वामी जी को मान्यता से तुलनात्मक अध्ययन को भूमिका के साथ, खानिया चर्चा के निमित्तोपादान तथा व्यवहार निश्चय सम्बन्धी अध्याय, उचित भूमिका के साथ प्रकाशित करेगी। जैसा कि महामन्त्रीजो के स्पष्टीकरण मे चर्चा है पुस्तको का प्रकाशन शुरू हो रहा है और सर्वप्रथम यह पहिली पुस्तक है । श्री प० पूलचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री ने नवोदित वर्ग की मान्यताओ को तार्किक रूप देने के लिये जनतत्त्वमीमासा के नाम
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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