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________________ xvii से एक पुस्तक लिखी है उसकी मीमांसा के रूप मे व्याकरणाचार्य प० वशीधर की वीना एक पुस्तक लिख रहे है उस ही का यह प्रथम भाग है। मीमासा की मीमासा के सम्बन्ध मे कुछ भी कहना मात्र अपने मुख से अपनी प्रशसा करना होगा अत ऐसा न करके इसका उत्तरदायित्व हम पुस्तक के पाठकों पर छोडते है तथा उनसे साग्रह निवेदन करते है कि वे इसको मनन की द्रष्टि से पढने का कष्ट करे। अब रह जाती है व्याकरणाचार्यजी की भावना एव उनके प्रयत्नो की बात। इसके सम्बन्ध मे कुछ भी लिखना व्याकरणाचार्य जी की भावना एव उनके प्रयत्नो को हलका करना होगा व्याकरणाचार्यजी इन दिनो बीमार रहे है किन्तु ऐसी स्थिति मे उनको बीमारी के कष्ट से भी अधिक कष्ट इस बात का रहा है कि परम्परा को बिगाड़ा जा रहा है और पण्डितजन भी किसी भी आनिवर्चनीय कारण से ऐसे वर्ग की सारहीन मान्यताओको भी तार्किक रूप देने जा रहे हैं व्याकरणाचार्य जी की इस ही वेदना का परिणाम है जो उन्होने ऐसे वर्ग को मूल मान्यताओ के सम्बन्ध मे तर्क एवं शास्त्राधार से आचार्य मान्यताओ के समर्थन में अनेक पुस्तकें लिखी है यह उनमे पहली पुस्तक है उनकी शेष रचनायें भी निकट भविष्य मे ही सामने आ जायेगी। जहां तक दिगम्बर जैन सस्कृति सेवक समाज का सम्बन्ध है व्याकरणाचार्यजी उसके एक अभिन्न अग है अतः यह हम
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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