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________________ XV हे तथा ऐसा करने का प्रत्येक विचारक को अधिकार है, इस सम्बन्ध मे हम अपने माननीय सहयोगी से पूर्णतया सहमत है कि अपनी-अपनी व्याख्या उपस्थित करने का प्रत्येक विचारक को अधिकार है किन्तु यदि स्वामी जी की कथनी मात्र पूर्वाचार्यों की मान्यताओ की व्याख्या होती, तव तो इस ही वात पर चर्चा चल सकती थी कि क्या स्वामी जी की व्याख्या ठीक है या नही। हम ही क्या भारत के न्याय विभाग का भी यही कार्य है भारतमि विधान की व्याख्या की अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर, व्याख्या का प्रश्न भारत के उच्चतम न्यायालय तक पहुँचता है व्याख्या की सीमा व्याख्या तक ही सीमित है व्याख्या के रूप मे धारा के रूप को ही रूपान्तरित नहीं किया जा सकता। जहाँ तक स्वामी जी कथनी है वह पूर्वाचार्यों के प्रतिपादन की व्याख्या मात्र नहीं है किन्तु स्पष्ट उसका खण्डन है । दूसरे के आक्रमण से अपनी परम्परा की रक्षा एक सरल कार्य है किन्तु भीतरी क्रान्ति से परम्परा की रक्षा का कार्य एक गुरुतर कार्य है इसकी सफलता के लिये कठोर सकल्प एव लगातार प्रयत्न की आवश्यकता जरूरी है इस ही लक्ष्य को लेकर दिगम्बर जेन-सस्कृति सेवक समाज की स्थापना हुई है। जहाँ तक सेवक समाज के कार्यक्रम की बात है इसके सम्बन्ध मे हमारे महामन्त्रीजी ने निम्नलिखित रूपरेखा रक्खी है। (२) जिस समय आर्य समाज ने जैन धर्म पर आक्रमण किया था तब उसके बचाव के लिये हमने तीन कार्य किये थे एक
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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