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- अर्थात् जीव के परिणामो का निमित्त पाकर पुद्गल कर्म रूप परिणत होते है और पुद्गल कर्मों का निमित्त पाकर जीव भी अपनी योग्यतानुसार तदनुकूल परिणत हुआ करता है ।
यद्यपि ऊपर मै यह वतला चुका हूँ कि कार्माण वर्गणा हो कर्म रूप परिणत होती है और नोकर्म वर्गणा ही नोकर्मरूप परिणत होती है परन्तु यहाँ मैं इतनी वात और बतला देना चाहता हूँ कि कार्माणवर्गणा मे स्थित पुद्गल कालान्तर मे नोकर्मवर्गणा का अथवा और दूसरे प्रकार का रूप भी धारण कर लिया करते हैं व नोकर्मवर्गणा मे स्थित पुद्गल भी कालान्तर मे कर्माणवर्गणा का अथवा और दूसरे प्रकार का रूप धारण कर लिया करते हैं, इसी प्रकार और दूसरे प्रकार के पुद्गल भी कालान्तर मे कार्माणवर्गणा का या नोकर्मवर्गणा का रूप धारण कर लिया करते हैं । इतना ही नहीं, एक प्रकार को कार्माणवर्गणा के पुद्गल कालान्तर मे दूसरी काणिवर्गणा का रूप धारणा कर लिया करते हैं और एक प्रकार की नोकर्मवर्गणा के पुद्गल भी कालान्तर मे दूसरी नोकर्मवर्गणा का रूप धारण कर लिया करते हैं । इस प्रसङ्ग मे प० फूलचन्द्रजी ने जैनतत्त्वमीमासा के पृष्ठ १६६ पर निम्नलिखित कथन किया है
"कर्मबन्ध होने के पहले सब कार्माणवर्गणाये एक प्रकार की होती है या सब कर्मों की अलग-अलग वर्गणायें होती हैं ? साथ ही यह भी देखना है कि कार्माणवर्गणाये ही कर्मरूप क्यो परिणत होती हैं अन्य वर्गणाये निमित्तो के द्वारा कर्मरूप परिणत क्यो नही हो जाती ? यद्यपि ये प्रश्न थोडे जटिल तो प्रतीत होते हैं परन्तु शास्त्रीय व्यवस्थाओ पर ध्यान