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मे वह योग्यता नही पायी जाती है वे अभव्य कहे गये हैं। जोवो के ये दोनो प्रकार ऐसे जानना चाहिये जैसे पकने योग्य मूग और नही पकने योग्य मूग इस तरह मूगो के दो प्रकार पाये जाते है।
इस प्रकार स्वामी समन्तभद्र द्वारा दिये गये पाक्य और अपाक्य शक्तियो के दृष्टान्त से, श्रीमद्भट्टाकलकदेव और स्वामी विद्यानन्दी द्वारा किये गये उल्लिखित व्याख्यान से, पचास्तिकाय गाथा १२० की टीका मे विद्यमान आचार्य अमृतचन्द्र के उल्लिखित वचन से और श्री प० फूलचन्द्र को भी उनके उल्लिखित वक्तव्य के आधार पर मान्य होने से यही मानना उचित है कि आप्तमीमासा कारिका ६६ व १०० मे पठित शुद्धि और अशुद्धि शब्दो से स्वामी समन्तभद्र को उडद अथवा मग के पृथक्-पृथक् दानो मे पायी जाने वाली पाक्यशक्ति और अपाक्य शक्तियो की तरह ही भिन्न-भिन्न जीवो मे विद्यमान क्रमश भव्यत्व शक्ति और अभव्यत्वशक्ति हो अर्थ स्वीकार है।
आप्तमीमासा कारिका १०० का व्याख्यान करते हुए श्रीमद्भट्टाकलकदेव ने अष्टशती मे और आचार्य विद्यानन्दी ने अष्टसहस्री मे शुद्धि और अशुद्धि शब्दो का निम्नलिखित व्याख्यान भी किया है
__"यदि वा जीवानामभिसन्धिनानात्व शुद्ध्यशुद्धी । स्वनिमित्तवशात् सम्यग्दर्शनादिपरिणामात्मकोऽभि सन्धि. शुद्धि । मिर्यादर्शनादि परिणामात्मकोऽशुद्धिर्दोषावरणहानीतरलक्षणत्वात्तेषा शुद्ध्यशुद्धिशक्तयोरितिभेद माचार्य प्राह । ततोऽन्यत्रापि भव्याभव्याभ्या भव्येष्वेव साधनादिप्रकृतशक्तयोर्व्यक्ती सम्यग्दर्शनाद्युत्पत्ते पूर्वमशुद्ध्यभिव्यक्ते मिथ्यादर्शनादि सततिरूपाया पुन शक्त्यभिव्यक्ते सादित्वात् ।"
(अष्टसहस्री पृष्ठ ·७४-२७५)