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________________ १२८ अर्थ - अथवा जीवो मे विद्यमान अभिप्रायो की भिन्नता शुद्धि और अशुद्धि कहलाती है । जैसे अपने - अपने निमित्त से जीव के सम्यग्दर्शनादि परिणाम स्वरूप अभिप्राय को शुद्धि व मिथ्यादर्शनादि परिणाम स्वरूप अभिप्राय को अशुद्धि समझना चाहिये । क्योकि जीवो की शुद्धिशक्ति तो दोषो (काम-क्रोधादि भाव कर्मो) तथा आवरणो (ज्ञानावरणादि पौद्गलिक द्रव्यकर्मों) की हानि (विनाश) स्वरूप है और उनकी ( जीवो की) अशुद्धिशक्ति उक्त दोषो तथा आवरणो के सद्भावरूप है । दोनो शक्तियो मे पाये जाने वाले इस भेद (अन्तर) को आचार्य समन्तभद्र ने "साद्यनादी तयोर्व्यक्ती" इस कारिकाश द्वारा कहा है । अत भव्य तथा अभव्य दोनो मे से केवल भव्यो मे प्रकृत शुद्धि और अशुद्धि' शक्तियो की व्यक्ति क्रमश सादि और अनादि समझना चाहिये । क्योकि भव्यो मे सम्यग्दर्शनादि को उत्पत्ति से पूर्व मिथ्यादर्शनादि की अनादिकाल से चली आ रही परम्परा स्वरूप अशुद्धि शक्ति की व्यक्ति मे कथचित् अनादिपना पाया जाता है तथा सम्यग्दर्शनादि की अभिव्यक्ति मे सादिपना पाया जाता है । Caterer को कारिका १०० के व्याख्यान के गर्भ मे अष्टशती और अष्टसहस्री मे जो उक्त व्याख्यान पाया जाता है, मालूम पडता है, कि प० फूलचन्द्र जी ने इसके आधार पर ही शुद्धि और अशुद्धि शब्दो का अर्थ अपने अभिप्रायानुसार किया है । लेकिन वास्तव मे कारिका का वही मुख्यार्थ ( अभिधेयार्थ ) समझना चाहिये जिसका प्रतिपादन अष्टशती और अष्टसहस्त्री मे सर्वप्रथम किया गया है । पश्चात् किया गया अर्थ सूचित अर्थ ही समझना चाहिये ।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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