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है तथा अतीद्रिय पदार्थों का दर्शन करने वालो के द्वारा प्रत्यक्ष से जाना जाता है । इस तरह जीवो के भव्यत्व और अभव्यत्व स्वभाव ही क्रमश शुद्धि और अशुद्धि है । इन्हे जीवो की सामर्थ्य और असामर्थ्य अथवा शक्ति और अशक्ति भी कह सकते हैं। इन्हे उडद आदि मे पायी जाने वाली पाक्य और अपाक्य शक्तियो की तरह समझना चाहिये । चूकि इनकी अस्तित्व सिद्धि मे वाधक प्रमाणो का अभाव है अत इनका सद्भाव पृथक्-पृथक् जीवो मे सुनिश्चित समझना चाहिये ।
भट्टालकदेव ने इस व्याख्यान के साथ प० फूलचन्दजी का भी कोई विरोध नही है अत वे लिखते हैं
"यहा पर जीवो के सम्यग्दर्शनादिरूप परिणाम का नाम शुद्धि शक्ति है और मिथ्यादर्शनादिरूप परिणाम का नाम अशुद्धि शक्ति है । इस अभिप्राय को ध्यान मे रखकर यह व्याख्यान किया है । वैसे शुद्धिशक्ति का अर्थ भव्यत्व और अशुद्धिशक्ति का अर्थ अभव्यत्व करके भी व्याख्यान किया जा सकता है । भट्ट अकलकदेव ने अष्टशती मे और आचार्य विद्यानन्दी ने अष्टसहस्री मे सर्वप्रथम इसी अर्थ को ध्यान मे रखकर व्याख्यान किया है । इसी अर्थ को ध्यान में रखकर आचार्य अमृतचन्द्र ने पचास्तिकाय गाथा १२० की टीका मे यह वचन लिखा है - " ससारिणो द्विप्रकारा, भव्या अभव्याश्च । ते शुद्धस्वरूपोपलम्भशक्तिसद्भावासद्भावाभ्या पाच्यापच्य मुद्गवदभिधीयन्त इति । " (जैनतत्त्वमीमासा टिप्पणी पृष्ठ ६९ )
प० पूलचन्द्रजी ने आचार्य अमृतचन्द्र का जो उक्त उद्धरण दिया है उसका अर्थ यह है कि ससारी जीव दो प्रकार के हैं- भव्य और अभव्य । जिन जीवो मे अपने स्वरूप की उपलब्धि की योग्यता पायी जाती है वे भव्य और जिन जीवो