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पूरा नही बैठता है तो उन्हे स्पष्ट करना पड़ा कि " दृष्टान्त मे दृष्टान्त के सव गुण उपलब्ध होते ही है ऐसा है भी नही, वह तो मुख्यार्थ को सूचना मात्र करता है” लेकिन स्वामी समन्तभद्र जैसे तार्किक महापुरुष यहा पर ऐसा दृष्टान्त उपस्थित करेगे जिसका दृष्टान्त के साथ पूरा मेल आवश्यक होने पर भी नही बैठता हो - ऐसी कल्पना करना अनुचित ही माना जायगा । अत कारिका मे विद्यमान शुद्धि शक्ति का अर्थ भव्यत्व और अशुद्ध शब्द का अर्थ अभव्यत्व करना ही सर्वथा उचित है । इस अर्थ के साथ पाक्य शक्ति और अपाक्य शक्ति का दृष्टान्त भी सर्वथा सगत हो जाता है तथा फिर प० जी को दृष्टान्त का दृन्त के साथ समन्वय करने के लिये उक्त खीचातानी करने की भी कोई आवश्यकता नही रह जाती है ।
श्रीमद्भट्टालकदेव और स्वामी विद्यानन्दी ने कारिका का व्याख्यान करते हुए शुद्धिक्ति का अर्थ भव्यत्व और अशुद्धि शक्ति का अर्थ अभव्यत्व ही किया है । यथा-
"शुद्धिस्तावज्जीवाना भव्यत्व केषाचित्सम्यग्दर्शनादियोगान्तिश्चयिते । अशद्धिरभव्यत्व तद्वैपरीत्यात् प्रवर्तनादवगम्यते छद्मस्थै, प्रत्यक्षतश्चातीन्द्रियार्थदर्शिभि । इति भव्येतर स्वभावी शुद्ध्यशुद्धी जीवाना तेषा सामर्थ्या सामर्थ्ये शक्त्शक्ती इति यावत् । ते माषादिपाक्यापरशक्तिवत् सभाव्येते सुनिश्चि
तासभवद्वाधकप्रमाणत्वात्
יין
अर्थ - यहा पर शुद्धि शब्द का अर्थ भव्यत्व है जो किन्ही के सम्यग्दर्शन आदि के आधार पर निश्चित होता है । इसी तरह अशुद्धि शब्द का अर्थ यहा पर अभव्यत्व है जो भव्यत्व से विपरीत प्रवर्तन के आधार पर तो छद्म स्थो द्वारा जाना जाता