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यद्यपि १० जी के इस व्याख्यान का मुझे यहा पर विरोध नही करना है परन्तु इतना निश्चित है कि उनके इस व्याख्यान से कारिका का स्वारस्य समाप्त हो जाता है । प० जी के ही निम्नलिखित कथन से यह बात ठीक तरह से पाठको की समझ मे आ जायगी । वे लिखते हैं
"इस विषय को स्पष्ट करने के लिये आचार्य महाराज ( स्वामी समन्तभद्र ) ने पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्ति को उदाहरण के रूप मे उपस्थित किया है । आगय यह है कि जिस प्रकार वही उडद अग्नि सयोग को निमित्त कर पकता है जो पाक्य शक्ति से युक्त होता है । जिसमे अपाक्य शक्ति पायी जाती है वह अग्नि सयोग को निमित्त कर त्रिकाल मे नही पक सकता ऐसी वस्तु मर्यादा है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिये । यहा पर पाक्यशक्ति युक्त उडद और अपाक्य शक्ति युक्त उडद ऐसा भेद किया गया है जो सब जीवो पर पूर्ण तरह से लागू नही होता, क्योकि भव्यजीवो मे शुद्धिशक्ति और अशुद्धि शक्ति का सद्भाव समान रूप से उपलब्ध होता है सो प्रकृत मे दृष्टान्त को एक देश रूप से ग्राह्य मान कर मुख्यार्थ को फलित कर लेना चाहिये । दृष्टान्त मे दृष्टान्त के सब गुण उपलब्ध होते ही है, ऐसा है भी नही । वह तो मुख्यार्थ की सूचना मात्र करता है ।"
( जैन तत्त्वमीमासा पृष्ठ ६९-७० )
मालूम पडता है कि कारिका मे विद्यमान शुद्धिशक्ति का ऊपर लिखे प्रकार अर्थ करने पर जब पं० जी को यह भान हुआ कि उसका मेल दृष्टान्त रूप से उपस्थित पृथक्-पृथक् उडद मे विद्यमान पाक्यशक्ति और अपाक्यशक्ति के
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