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________________ ११६ जिसका आशय यह है कि प्रत्येक जीव मे जो अनादिकालीन स्वत सिद्ध वैभाविक शक्ति विद्यमान है उसके आधार पर प्रत्येक जीव की चैतन्यशक्ति का बद्धकर्मों के सहयोग से यद्यपि कामक्रोधादि विकाररूप परिणमन अनादिकाल से होता आ रहा है, फिर भी उस वैभाविक-शक्ति के साथ-साथ किन्ही जीवो मे तो भव्यता नाम की शुद्धि शक्ति और किन्ही जीवो मे अभव्यता नाम की अशुद्धि शक्ति भी अनादिकाल से स्वत सिद्ध रूप मे विद्यमान है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक ससारी जीव अनादिकाल से कर्म के सहारे पर अपनी उक्त वैभाविक शक्ति के आधार पर यद्यपि अशुद्ध हो रहा है ( काम-क्रोधादिरूप परिणमन कर रहा है ) परन्तु इस तरह से अशुद्ध होते हुए इन समस्त ससारी जीवो मे से किन्ही ससारी जीवो मे ऐसी स्वत सिद्ध अनादिकालीन योग्यता पायी जाती है जो योग्यता भविष्य मे अनुकूल निमित्त प्राप्त होने पर उनके शुद्ध हो जाने का सकेत देती है और चकि यह योग्यता उक्त प्रकार से अशुद्ध हए समस्त ससारी जीवो मे नही पायी जाती है तो जिन ससारी जीवो मे यह योग्यता नही पायी जाती है उनके विषय मे यह निष्कर्ष अनायास ही निकल आता है कि वे कभी शुद्ध होने वाले नहीं हैं । इस प्रकार वैभाविक शक्तिरूप उपादानशक्ति और कर्मरूप निमित्त के बल पर चित् शक्ति के विभाव परिणमनस्वरूप काम-क्रोधादि स्वरूप अशुद्धि को प्राप्त समस्त ससारी जीवो में से कोई जीव तो उक्त प्रकार की शुद्धि शक्ति के धारक भव्य होते हैं और कोई जीव उक्त शुद्धिशक्ति के अभाव मे अभव्य होते हैं। इनमे से कर्मवन्धन की समानता रहने पर भी जो अशुद्ध जीव शुद्ध होने की योग्यता रखने वाले भव्य हैं वे कभी भी अनुकूल निमित्तो का सहयोग प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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