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कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपत । तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशद्धित ॥६६ ॥
अर्थ-ससारी जीवो मे काम-क्रोध-मोहादि विविध प्रकार के विकारो का जो उद्भव हुआ करता है उसमे उनके द्वारा पूर्व मे बद्धकर्म कारण होते है और उन कर्मों के बन्ध मे इस कर्मबन्ध से पूर्व उद्भूत जीवो के काम-क्रोध-मोहादि विकार कारण होते हैं । वे ससारी जीव शुद्धि शक्ति और अशुद्धि शक्ति के भेद से दो प्रकार के है।
___ इसका भाव निम्न प्रकार है (१) ससारी जीवो के कर्मबन्ध और कामादि विकारो की उत्पत्ति मे पायी जाने वाली कार्यकारणभाव की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है ।
(२) ससारी जीवो मे जो कामादि भाव उत्पन्न होते है वे सब उनकी अपनी चैतन्य शक्ति मे उत्पन्न होने वाले विभाव ( विकारी ) परिणमन है । अर्थात् प्रत्येक जीव मे अनादिकाल से पायी जाने वाली स्वत सिद्ध वैभाविक शक्ति के आधार पर उनकी चैतन्य शक्ति का कर्म के सहयोग से काम-क्रोधादि रूप परिणमन सतत हो रहा है।
___यहा प्रश्न उठता है कि जब प्रत्येक जीव की चैतन्यशक्ति का कर्म के सहयोग से काम-क्रोधादिरूप परिणमन अनादिकाल से सतत होता आ रहा है तो फिर उन समस्त जीवो मे कोई जीव मुक्ति प्राप्त करलें और कोई जीव हमेशा ससारी बने रहे--इस भेद का कारण क्या है ?
इस प्रश्न का समाधान स्वामी समन्तभद्र ने प्रकृत पद्य के चतुर्थ चरण “जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धित" द्वारा दे दिया है ।
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