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लेते हैं और जो अशुद्ध जीव शुद्ध होने की योग्यता के अभाव के कारण अभव्य है वे कभी भी, चाहे निमित्तो का सहयोग उन्हे मिल भी जावे, मुक्ति के पात्र नही होते हैं ।
प्रकृत पद्य के चतुर्थचरण का व्याख्यान अष्टशती और अष्टसहस्री मे निम्न प्रकार किया गया है।
ननु यदि कर्मवन्धानुरूपत ससार स्यान्न तर्हि केषाचिन्मुक्तिरितरेपो ससारश्च, कर्मबन्धनिमित्ताविशेषादितिचेन्न, तेषा शुद्ध्यशुद्धित प्रतिमुक्तीतरसभवादात्मनाम् । न हि जीवा शश्वदशुद्धित एव व्यवस्थिता स्याद्वादिना याज्ञिकानामिव, कामादि स्वभावत्व निराकरणात् । तत्स्वभावत्वे कदाचिदौदासीन्योपलम्भ विरोध्यत् । नापि शुद्धित एवावस्थिता कापिलनामिव, प्रकृति ससर्गेऽपि तत्र कामाधु पलम्भे पुरुषकल्पनावैयर्थ्यात्, तदुपभोगस्यापि तत्रैव सभवात् । न ह्यन्य कामयतेऽन्य काममनुभवतीति युक्तम् । नापि सर्वे सभवद्विशुद्धय एव जीवा. प्रमाणत प्रत्येतु शक्या ससारशून्यत्वप्रसगात् । किं तर्हि ? शुद्ध्यशुद्धिभ्या व्यवतिष्ठन्ते “जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धित्त" इति वचनात् । तत शुद्धिभाजायात्मना प्रतिमुक्तिरशुद्धिभाजां ससार ।"
अर्थ-यहा यह समस्या पैदा होती है कि “यदि कर्मवन्ध के अनुरूप ही जीवो के ससार का निर्माण होता है तो समस्त ससारी जीवो मे से किन्ही जीवो को मुक्ति प्राप्त हो और उनसे भिन्न अन्य जीव ससारी बने रहे यह बात नही बनती है क्योकि कर्मवन्ध तो मुक्ति प्राप्त करने योग्य और ससारी बने रहने योग्य दोनों ही प्रकार के ससारी जीवो मे समान रूप से ही हुआ करता है।" इस समस्या का निराकरण इस प्रकार है कि सम्पूर्ण जीव शुद्धिशक्ति वाले और अशुद्धिशक्ति वाले इस