SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ की अपेक्षा अनन्तगुणा बना रहने वाला है । ससारी जीव मुक्त होते हैं और मुक्ति प्राप्त जीव कभी पुन ससारी नही बनतेयह सिद्धान्त एक तो आगम वचन होने से श्रद्धा की वस्तु है दूसरे जैन दर्शन ग्रन्थों में तर्क द्वारा भी इस सिद्धान्त की पुष्टि की गयी है । प्रकरण के लिये उपयोगी न होने के कारण मैं यही उक्त सिद्धान्त की तर्क द्वारा पुष्टि करना आवश्यक नहीं समझता हूँ । ससारी जीवों के दो वर्ग भव्य और अभव्य संसारी जीवो के भी जैनागम मे दो वर्ग निश्चित किये गये हैं । उनमे से एक वर्ग तो भव्य जीवों का है और दूसरा वर्ग अभव्य जीवों का है। जिन ससारी जीवों मे मुक्ति या मुक्ति प्राप्ति के साधनभूत सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करने की अथवा मौजूदा ससार के साधनभूत मिथ्यादर्शन आदि को नष्ट करने की योग्यता पायी जाती है वे सव भव्य जीव कहे गये है और जिन संसारी जीवो मे उक्त प्रकार की योग्यता नही पायी जाती है अर्थात् भव्य जीवो से विपरीत योग्यता पायी जाती है वे सव भव्य जीव कहे गये हैं । आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय दो के "जीवभव्याभव्यत्वानिच ॥ ७ ॥ " सूत्र द्वारा उक्त प्रकार की योग्यता को भव्यत्व और उसके अभाव या उससे विपरीत योग्यता को अभव्यत्व नामो से हो पुकारा है । स्वामी समन्तभद्र ने आप्त मीमासा में उसे शुद्धिशक्ति और उसके अभाव या विपरीत योग्यता को अशुद्धि शक्ति नाम दिये है । तत्त्वार्थ सूत्र के उक्त सूत्र द्वारा ही उक्त भव्यत्व और अभव्यत्व दोनो को जीवत्व भाव के साथ पारिणामिक भावो में
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy