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१०६ गिनाया गया है जिसका भाव यह है कि ये दोनों भाव जीवत्वभाव की तरह जीव के स्वत सिद्ध भाव है और स्वत सिद्ध होने से जहा ये दोनो भाव अनादि है वहा परस्पर विरोधी होने से एक ही जीव में उन दोनो का पाया जाना असम्भव है। इतना : ही नही, जिस जीव मे भव्यत्व अनादि से है उसमे कभी अभव्यत्व नही आ सकता है और जिस जीव मे अभव्यत्व अनादि से है उस जीव मे कभी भव्यत्व नही आ सकता है। इसका भी भाव यह है कि भव्य कभी अभव्य नहीं होता भव्य ही रहता है और अभव्य कभी भव्य नही होता अभव्य ही रहता है।
भव्यत्व और अभव्यत्व के अन्य प्रकार
प्रसगवश यहाँ हम इतनी बात और कह देना चाहते है कि जीवो के जिन भव्यत्व और अभव्यत्व का ऊपर कथन किया है वे जीव के असाधारण भाव हैं अर्थात् जीवो के अतिरिक्त अन्य वस्तुओ मे नही पाये जाते है । परन्तु इनके अतिरिक्त दूसरे प्रकार के भी भव्यत्व और अभव्यत्व होते है जो सभी वस्तुओ मे पाये जाते हैं। जैसे प्रत्येक द्रव्य मे परस्पर एक-दूसरे द्रव्यरूप परिणत होने की योग्यता नही पायी जाती है अथवा एकद्रव्य के गुणो का परिणमन दूसरे द्रव्य मे कदापि नही होता है जब कि प्रत्येक द्रव्य सतत अपनी द्रव्यपर्यायो और अपनी स्वभावपर्यायो मे परिणमन करता रहता है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु मे अपनी द्रव्यपर्यायो और स्वभावपर्यायो की अपेक्षा भव्यत्व और अपने से भिन्न वस्तु की द्रव्यपर्यायो और स्वभावपर्यायो की अपेक्षा अभव्यत्व दोनो ही परस्पर अविरोधी होने के कारण सतत एक साथ रहा करते है।