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उनके विषय मे प्रकृत मे मैं इतना और कह देना चाहता हूँ कि यदि गहराई से विचार किया जाय तो मालूम होगा कि वे परिणमन भी स्वपरसापेक्ष अर्थात् उपादान और निमित्त दोनो कारणो के बल पर ही हुआ करते हैं । जैसे आम्रफल के स्वभाव रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का अपना-अपना जो परिणमन उसकी कच्ची और पको अवस्था मे हुआ करता है वह सब स्वपर - सापेक्ष ही हुआ करता है ।
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इस तरह मैंने अब तक वस्तु विज्ञान की दृष्टि से इस वात को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि पूर्वोक्त प्रकार जितनी अनन्तानन्त वस्तुये स्वत सिद्ध अर्थात् अनादि, अविनश्वर, स्वाश्रित और अखण्डता के लिये हुए विश्व मे विद्यमान हैं उन सब वस्तुओं के स्वत सिद्ध और प्रतिनियत स्वभाव में पूर्वोक्त प्रकार से स्वसापेक्ष परनिरपेक्ष अर्थात् केवल उपादानोपादेयभाव के आधार पर तथा स्वपरसापेक्ष अर्थात् उपादानोपादेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभाव दोनो के आधार पर परिणमन सतत हो रहे हैं । आगे अध्यात्म विज्ञान की दृष्टि से आत्मतत्त्व पर विचार किया जाता है ।
अध्यात्मविज्ञान को दृष्टि में आत्मतत्त्व
पूर्व मे ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि आकाशद्रव्य एक है, धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, कालद्रव्य असख्यात हैं, जीवद्रव्य अनन्तानन्त हैं और पुद्गलद्रव्य भी अनन्तानन्त हैं । इस तरह कुल मिलाकर विश्व की सम्पूर्ण वस्तुओ की सख्या अनन्तानन्त है । पूर्व मे ऐसा भी प्रतिपादन किया गया है कि इन सब अनन्तानन्त वस्तुओ मे से प्रत्येक वस्तु अपने स्वत सिद्ध, स्वाश्रित और प्रतिनियत स्वरूप के आधार पर परस्पर एक