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दूसरी वस्तु से सतत भिन्नता को प्राप्त हो रही है । इस प्रकार स्वरूप दृष्टि से पृथक्-पृथक् विद्यमान अर्थात् अपना-अपना अलग-अलग स्वरूप धारण करती हुई उक्त सभी वस्तुओ मे से एक भी वस्तु ऐसी नही है जो अपने से भिन्न अन्य वस्तु से विल्कुल अस्पृष्ट होकर रह रही हो । अर्थात् सभी वस्तुयें यथासम्भव एक दूसरी वस्तु से स्पृष्ट होकर ही रही हैं ।
इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि उक्त सभी वस्तुये 'जब आकाश के अन्दर समायी हुई है तो वे आकाश को स्पर्श करती हुई ही रह रही है । इसके अलावा अनन्तानन्त प्रदेश वाले अखण्ड आकाश द्रव्य के मध्य उसके असख्यात प्रदेशो पर असख्यात प्रदेशी अखण्ड धर्मद्रव्य विराजमान है और जहा धर्मद्रव्य विराजमान है वही पर समान असख्यात प्रदेशी अखण्ड अधर्मद्रव्य भी विराजमान है । आकाश के जिन और जितने प्रदेशो पर धर्म और अधर्म द्रव्य स्थित है उनमे से प्रत्येक एकएक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य स्थित है । इतना ही नही, सम्पूर्ण अनन्तानन्त जीवद्रव्य और सम्पूर्ण अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्य भी अपनी-अपनी छोटी-बडी अथवा स्थूल- मूक्ष्म आकृति को लेकर आकाश के यथायोग्य इन्ही असंख्यात प्रदेशो पर स्थित हो रहे हैं अथवा विचर रहे हैं ।
इतना होने पर भी आकाश, धर्म, अधर्म और सम्पूर्ण काल नाम की वस्तुये परस्पर अथवा जीव और पुद्गल नाम की वस्तुओं के साथ कभी बद्धता (मिश्रण) को प्राप्त नही होती हैं इसलिये इन चारो प्रकार की वस्तुओ को मैं अबद्धस्पृष्ट कहना चाहता हूँ । अर्थात् उक्त चारो प्रकार को वस्तुये यद्यपि अपने से भिन्न वस्तुओं के साथ स्पृष्ट होकर ही रह रही हैं फिर