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और ज्ञान दोनों प्रकार के ज्ञायक स्वभाव के उपयोगाकार परिणमन मे उल्लिखित प्रकार से चूकि आत्मा स्वय अथवा 'उसके उक्त दोनो स्वत सिद्ध स्वभाव उपादान है व देखने और जानने के विषयभूत पदार्थ निमित्त हैं । इसलिये यहां पर भी 'आकाश, दर्पण और दीपक की तरह उपादानोपादेयभाव तथा निमित्तनैमित्तिकभाव दोनो के आधार पर कार्यकारणभाव की सर्गात को असंगत नही माना जा सकता है । इतना अवश्य है 'कि आकाश के अवगाहकस्वभाव के अवगाह्यमान पदार्थों को अवगाहित करने रूप परिणमन मे अवगाह्यमान पदार्थो की तरह मुक्तात्मा के दर्शन और ज्ञानरूप ज्ञायक स्वभाव के उपयोगाकार परिणमन मे उनके विषयभूत दृश्य और ज्ञेय पदार्थ केवल उदासीन रूप से ही निमित्त होते है । इसी प्रकार जीवमुक्त (अर्हन्त ) अवस्था को प्राप्त संसारी जीवो के दर्शन और ज्ञान रूप ज्ञायकस्वभाव के उपयोगाकार परिणमन मे भी उनके . विषयभूत दृश्य और ज्ञेय पदार्थ उदासीनरूप से निमित्त ही होते हैं। "क्योकि इन मुक्त और जीवन्मुक्त ससारी जीवो को दर्शन और ज्ञान के विपयभूत पदार्थों को देखने व जानने की आकाक्षा एव प्रयत्न नही करने पडते है । उक्त मुक्त और जीवन्मुक्त ससारी जीवो को छोडकर शेष समस्त ससारी जीवो मे से जिनमे पदार्थों का ज्ञान करने के लिये आकाक्षा और प्रयत्न हो रहे हो (उनके ज्ञायकस्वभाव के देखने च जानने रूप परिणमन मे उदासीन निमित्तो के अलावा प्रेरक निमित्तो की भी उपयोगिता स्वीकार करनी पडती है |
यहा प्रसंगवश पुद्गलद्रव्य के सम्बन्ध मे भी मै इतना कह देना चाहता हू कि पुद्गलद्रव्य के स्वभाव रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के परिणमनो का कथन पूर्व मे किया जा चुका है ।