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________________ १०२ कोटि मे आ सकता है । अवाय के पश्चात् ज्ञान धारणा का रूप ले सकता है या समाप्त हो सकता है । इसी प्रकार धारणा होकर भी कालान्तर मे वह धारणा भी समाप्त हो सकती है। इस प्रकार आत्मतत्त्व पर वस्तुविज्ञान की दृष्टि से विस्तार के साथ प्रकाश डालने के अनन्तर प्रकृत मे आत्मा का उदाहरण के रूप मे स्पष्टीकरण किया जा रहा है। प्रकृत में आत्मा का उदाहरण के रूप में स्पष्टीकरण ऊपर के कथन से यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि आत्मा के स्वभाव दर्शन का कार्य पदार्थों का दर्पण के समान आत्म प्रदेशो मे प्रतिविम्बित करना है और आत्मा के स्वभाव ज्ञान का कार्य आत्म प्रदेशो में प्रतिविम्बित उन पदार्थों को दीपक की तरह प्रकाशित करना है । आत्म प्रदेशो मे पदार्थों के प्रतिविम्बित होने से जो परिणति आत्मा की या आत्मा के स्वभाव दर्शन की होती है उसमे आत्मा का स्वत सिद्ध दर्शन स्वभाव ही उपादानशक्ति है और उनको प्रतिभासित करने मे आत्मा का स्वत सिद्ध ज्ञान स्वभाव ही उपादानशक्ति है। अर्थात् आत्मा के ये दोनो स्वभाव ही परपदार्थ का अवलम्बन लेकर क्रमश देखने व जानने रूप परिणमन करते रहते हैं। इसलिये जव जैसा परिणमन दृश्यता व ज्ञेयता को प्राप्त होने वाले पदार्थों का होता जायगा उसके आधार पर वैसा ही परिणमन आत्मा के दर्शन और ज्ञानरूप स्वभावो का भी होता आयगा । इसका तात्पर्य यह है कि दृश्य और ज्ञेय पदार्थ अपने उस परिवतित रूप से ही उस समय आत्मा मे स्वत अथवा इन्द्रियो या मन की सहायता से यथायोग्य रूप मे प्रतिविम्बित होकर आत्मा द्वारा जाने जावेगे । इस प्रकार आत्मा के दर्शन
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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