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________________ ८४ समस्त जीव चेतना शक्ति के सद्भाव के आधार पर अपनी अपनी अर्थक्रियाकारिता का सतत अनुभव करते रहते है। चेतना का अपरनाम ज्ञायक स्वभाव है और इस स्वभाव के आधार पर ही प्रत्येक जीव पदार्थों का दृष्टा और ज्ञाता बना हआ है । अर्थात् प्रत्येक जीव मे ज्ञायकस्वभाव के रूप में दर्शन और ज्ञान नाम की दो शक्तिया विद्यमान है। इनमे से दर्शनशक्ति के आधार पर तो प्रत्येक जीव पदार्थ का दर्शन करता है और ज्ञानशक्ति के आधार पर वह पदार्थ का ज्ञान करता है। यहा यह ध्यान रखना चाहिये कि जीव का पदार्थ को दर्पण की तरह अपने अन्दर प्रतिविम्वित करने का नाम दर्शन है और उसका पदार्थ को दीपक की तरह प्रतिभासित करने का नाम ज्ञान है। आत्मा मे दर्पण की तरह पदार्थ प्रतिविम्बित होते है इस विषय मे आचार्य श्री अमृतचन्द्र द्वारा विरचित पुरुपार्थसिद्ध्युपाय का निम्नलिखित पद्य ध्यान देने योग्य हैतज्जयति पर ज्योति सम समस्तैरनन्तपर्यायै । दर्पणतल इव सकला प्रति फलनि पदार्थमालिका यत्र ।।१।। ___ अर्थ-सर्वोत्कर्ष को प्राप्त वह चैतन्य विश्व मे जयवन्त ( प्रभावशाली ) रहे जिसमे विश्व के समस्त पदार्थ अपनी अनन्त पर्यायो के साथ युगपत् प्रतिविम्बित हो रहे है।। रत्नकरण्डश्रावकाचार मे आचार्य श्री समन्तभद्र ने भी कहा है नम श्री वर्द्धमानाय निधूतकलिलात्मने । सा लोकाना त्रिलोकाना यद्विधा दर्पणायते ॥१॥ अर्थ-जिन्होने घातिया कर्मों को नष्टकर अपनी आत्मा को निर्मल बना लिया है अतएव जिनका ज्ञान अलोक सहित
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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