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________________ है तो वह अपने इस स्वभाव के अनुसार अपने अवभासनरूप परिणमन का उपादानकर्ता और पर के अवभासनरूप परिणमन का निमित्तकर्ता तो है परन्तु परिणमन दोनो का अपना अपना ही है। इसी प्रकार प्रत्येक पुद्गल भी जब अपने स्वभाव के अनुसार अपने मे और दूसरे पुद्गलों मे पूरण और गलनरूप परिणमन करने वाला है तो वह अपने इस स्वभाव के अनुसार भेद, और सघात के आधार पर अपने पूरण और गलनरूप परिणमन का उपादानकर्ता और दूसरे पुद्गलो के पूरण और गलनरूप परिणमन का निमित्तकर्ता तो है परन्तु प्रत्येक पुद्गल का पूरण और गलनरूप परिणमन अपना अपना ही है । ऊपर मैने वस्तुविज्ञान की दृष्टि से आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण किया है और इस प्रसग से आकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल द्रव्यो के स्वरूप का भी वस्तु विज्ञान की दृष्टि से आवश्यक समझकर विश्लेषण किया है । साथ ही समस्त चेतन और अचेतन द्रव्यो के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का भी वस्तु विज्ञान की दृष्टि से विवेचन किया है। अब आगे वस्तुविज्ञान की दृष्टि से ही आत्मतत्त्व का विस्तार से विवेचन किया जा रहा है। ऊपर कहा गया है कि आत्मा का स्वरूप चेतना है । चेतना शब्द का अर्थ अनुभव करना भी होता है। इस तरह यद्यपि विश्व के पूर्वोक्त समस्त पदार्थों मे जैन मान्यता के अनुसार अपने अपने स्वभाव के अनुकूल अर्थनियाकारिता विद्यमान है परन्तु आकाश, धर्म, अधर्म काल और पुद्गल इन सभी अचेतन द्रव्यो मे चेतना शक्ति की अविद्यमानता के कारण इनको अपनी अर्थनिया का अनुभवन नही होता है जब कि
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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