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को ले जाने अथवा दर्पण को अपने मुख से सामने लाने रूप पुरुषार्थ अपेक्षित हो जाता है अत उस समय हम दर्पण के उस प्रतिविम्बक स्वभाव के परिणमन मे कर्ता रूप से निमित्त हो जाते है तथा हमारे द्वारा व्यापारित मुख अथवा मुख का उस समय का परिणमन उसमे करणरूप से निमित्त होता है । इसी प्रकार उसमे हमारा जो उद्देश्य रहता है वह सम्प्रदान रूप से निमित्त होता है और इसी प्रकार आवश्यकतानुसार कोई अपादानरूप से और कोई अधिकरणरूप से भी निमित्त होता है । दीपक का उदाहरण
स्वपरसापेक्ष परिणमन के सम्वन्ध मे आकाश और दर्पण के अनन्तर तीसरा उदाहरण दीपक का उपस्थित किया जा रहा है।
लोक में तेल, वत्ती और पात्र ( वर्त्तन) विशेष के सहारे पर प्रज्वलित अग्नि को ही दीपक नाम से पुकारा जाता है । पूर्व कथनानुसार जिस प्रकार दर्पण का स्वभाव परपदार्थों को अपने अन्दर प्रतिविम्बित करने का है उसी प्रकार दीपक का स्वभाव स्व को (अपने को) और परपदार्थों को प्रकाशित करने का है और पूर्वकथनानुसार ही जिस प्रकार दर्पण का वह प्रतिविम्वक स्वभाव परसापेक्ष होकर परिणमनशील है उसी प्रकार दीपक का परपदार्थों को प्रकाशित करने का वह स्वभाव भी परसापेक्ष होकर परिणमनशील है । अर्थात् जिस प्रकार जव जो पदार्थ जिस रूप में दर्पण के सामने आता है तब उस पदार्थ को उसी रूप से दर्पण अपने मे प्रतिविम्बित करता है उसी प्रकार जब जो पदार्थ जिस रूप मे दीपक के समक्ष उपस्थित होता है तब उस पदार्थ को उसी रूप मे ही दीपक प्रकाशित करता है।