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आकाश एक अखण्ड द्रव्य है लेकिन दर्पण समान परिणमन करने वाले अनेक अरगुरूप पुद्गल द्रव्यो का पिण्ड (स्कन्ध) है। आकाश के परपदार्थ व गाहक स्वभाव के परिणमन मे परपदार्थ केवल उदासीन रूप से ही निमित्त होते हैं जब कि दर्पण के परपदार्थ प्रतिविम्वक स्वभाव के परिणमन मे परपदार्थ कही तो उदासीन रूप से निमित्त होते है और कही प्रेरकरूप से भी निमित्त होते है । दर्पण की इन दोनो प्रकार की स्थितियो मे से ऊपर मैंने दर्पण की उस स्थिति को दृष्टान्तरूप से लिया है जिसके अनुसार दर्पण के प्रतिविम्वक स्वभाव के परिणमन मे परपदार्थ उदासीन निमित्त बने हुए है। दूसरी स्थिति के अनुसार दर्पण के परपदार्थ प्रतिविम्बक स्वभाव के परिणेमन मे परपदार्थ प्रेरक निमित्त भी हुआ करते है, इसलिये जहा दर्पण के परपदार्थ प्रतिविम्बक स्वभाव मे परपदार्थ प्रेरक निमित्त होते है वहा उल्लिखित कार्यकारणभाव व्यवस्था की उपयोगिता हो जाती है।।
इसका तात्पर्य यह है कि जहा दर्पण के परपदार्थ प्रतिविम्वक स्वभाव के केवल परिणमन मात्र पर दृष्टि हो वहा तो परपदार्थ उस परिणमन मे उदासीन रूप से ही निमित्त होते है लेकिन जहा दर्पण के परंपदार्थ प्रतिविम्बक स्वभाव के परिणमन की उपयोगिता हो वहा उस परिणमन मे परपदार्थ प्रेरक निमित्त भी हो जाया करते हैं । जैसे हम जानते है कि दर्पण का स्वभाव परपदार्थो को प्रतिविम्बित करने का है इसलिये यदि हम अपना मुख दर्पण मे प्रतिविम्बित करना चाहते है तो हमे अपना मुखदर्पण के सामने ले जाना होगा या दर्पण को अपने मुख के सामने लाना होगा। इस तरह हमारे मुख का जो प्रतिविम्ब दर्पण मे पडेगा वह प्रतिविम्ब दर्पण के प्रतिविम्बक स्वभाव का परिणमन ही तो होगा। चूकि इसमे हमारा दर्पण के सामने अपने मुख