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________________ ७४ बदलते जावेगे तो वे पदार्थ अपने उम वदले हए रूप से ही दर्पण मे प्रतिविम्बित हो अथवा उन पदार्थों के हटने पर दूसरा पदार्थ दर्पण के सामने उपस्थित हो जायगा तो वह पदार्थ अपने स्प से ही दर्पण मे प्रतिविम्बत होगा। इसका फलितार्थ यह हआ कि प्रतिविम्चित होने वाले पदार्थ जिस रूप से दर्पण मे प्रतिविम्बित होगे या जो पदार्थ दर्पण मे प्रतिविम्बित होगे उनके अनुसार दर्पण का प्रतिविम्बक स्वभाव भी परिणत होता जायगा। इस कथन से यह वात निश्चित होती है कि दर्पण का परपदार्थों को अपने अन्दर प्रतिविम्वित करने का स्वभाव अपने परिणमन मे परसापेक्ष है । इसलिये दर्पण के प्रतिविम्बिक म्वभाव के उस परिणमन मे आकाश द्रव्य की तरह निमित्तनैमित्तिकभाव और पूर्वोक्त प्रकार उपादानोपादेयभाव इन दोनो के आधार पर कार्यकारणभाव व्यवस्था सगत हो जाती है। इस तरह कहा जा सकता है कि दर्पण के प्रतिविम्बक स्वभावमे होने वाले परिणमन रूप कार्य मेदर्पण अथवा दर्पण का प्रतिविम्बक स्वभाव उपादान कर्ता है और प्रतिविम्बित होने वाले पदार्थों का उस उस समय का परिणमन उसमे उदासीन निमित्त है। दर्पण के इस परसापेक्ष परिणमन मे भी आकाश की तरह कार्यकारण व्यवस्था की कुछ उपयोगिता नही है। आकाश और दर्पण के उदाहरण में अन्तर यहा पहला उदाहरण मैने आकाश द्रव्य का दिया है और दूसरा उदाहरण दर्पण का दिया है। ये दोनो उदाहरण यद्यपि एक ही विपय की पुष्टि के लिये दिये गये हैं परन्तु दोनो की स्थिति में निम्न प्रकार का अन्तर पाया जाता है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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