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________________ जैसे एक स्थान से दूसरे स्थान को हम जाते है तो हमारे उस गमन मे धर्मद्रव्य अवलम्बनरूप से निमित्त होता है, तागा आदि वाहन करणरूप से निमित्त होते हैं और भी अपने-अपने ढग से निमित्त हुआ करते है लेकिन हमने गमन कब प्रारब्ध किया और कव विवक्षित स्थान पर पहुँचे इसकी व्यवस्था व्यवहार काल के द्वारा की जाती है और गमन क्रिया की जो प्रवर्तमानता है उसका व्यवस्थापक काल द्रव्य होता है। परिणमन में पायी जाने वाली प्रवर्तमानरूपता और उसकी काल मर्यादा से हमे कालद्रव्य और व्यवहार काल का भेद भी समझ मे आ जाता है। इतना ही नही वर्तना और परिणाम (परिणमन ) मे क्या अन्तर है ? यह वात भी समझ मे आ जाती है। काल द्रव्य और व्यवहार काल की स्थिति, उनके स्वरूप तथा उनके वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्व तथा अपरत्व रूप कार्यों का विवेचन एव उनमे पाये जाने वाले अन्तर का यद्यपि विस्तार से कथन आवश्यक है परन्तु यहा पर मुझे केवल प्रसगवश इतना ही बतलाना है कि स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष परिणमन मे उक्त प्रकार से कालद्रव्य और व्यवहार काल की अवलम्बनरूप निमित्तता रहते हुए भी उस परिणमन की परनिपेक्षता पर कोई आच नही आती है। अभी तक के विवेचन का सार __ अभी तक मैंने कार्य के प्रति निमित्तो की सार्थकता सिद्ध करने के प्रसग मे जो कुछ लिखा है उसका सार यह है कि यथायोग्य धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल नामो से पुकारी जाने वाली जितनी अनन्तानन्त वस्तुयें विश्व में हैं अन सभी वस्तुओ का अपना-अपना पृथक्-पृथक् निजी स्वयसिद्ध
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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