SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम मे विश्व की समस्त वस्तुओ के प्रति आकाश द्रव्य का उपकार उन्हे अपने अन्दर समा लेने का बतलाया है तथा जीव और पुद्गल द्रव्यो के प्रति धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्य का उपकार क्रमश उन दोनो की गति और स्थिति मे अवलम्बन रूप से सहायक होने का बतलाया है। इसी प्रकार आगम मे समस्त वस्तुओ के प्रति काल द्रव्य का उपकार वर्तना के रूप मे वतलाया गया है और व्यवहार काल का उपकार वस्तुओ के यथायोग्य परिणाम, क्रिया तथा परत्वापरत्व के रूप मे स्वीकार किया गया है। अब प्रकृत मे विचारणीय बात यह है कि यदि काल द्रव्य वस्तु के परिणमन मे उसी प्रकार निमित्त होता है जिस प्रकार कि दूसरी वस्तुये निमित्त होती है तो परिणमन विशेषरूप जीव और पुद्गल द्रव्यो की गति मे भी कालद्रव्य को निमित्तता प्राप्त हो जायगी जिससे धर्मढव्य की निरर्थकता का प्रसग उपस्थित हो जायगा। इसलिये वास्तविक बात यह है कि प्रत्येक परिणमन अपने-अपने यथायोग्य स्वत सिद्ध स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष परिणमन स्वभाव के अनुसार क्रमश स्वत और निमित्तभूत पर की सहायता से हुआ करता है इसमे कालद्रव्य निमित्त नही हुआ करता है परन्तु वस्तु का कोई उत्पाद अथवा व्ययरूप परिणमन जो एक क्षण अथवा आवती मुहूर्त, घडी, घन्टा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष आदि की मर्यादा लिये हुए होता है इसका व्यवस्थापक व्यवहार काल होता है और उसको प्रवर्तमानरूपता का व्यवस्थापक कालद्रव्य होता है। तात्पर्य यह है कि वस्तु का परिणमन या तो स्वत. होता है अथवा परिणमन के अनुकूल निमित्तो के सहयोग से होता है परन्तु कोई भी परिणमन कब प्रारब्ध हआ और कब समाप्त हुआ इसको बतलाने वाला व्यवहार काल होता है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy