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प्रतिनिधि हैं। डॉ. मनमोहन सहगल ने अपने विचार निम्नांकित शब्दों मे व्यक्ति किये हैं
'कट्टों ने प्रेम के भावावेश में बिहारी को उस रूप में खो दिया-जिसमें उसका वैधव्य घुल सकता था, सत्यधन ने प्रेम की असारता पहचान कर विवाह की गरिमा में सार्थकता खोज ली और बिहारी जो दूसरों के लिए जीना ही जीवन मानता है, अपनी कर्मठता का सहारा लेकर एक सन्तुष्ट जीवन को पा सकने के सपनों में लीन हुआ, इस प्रकार तीनों मुख्य पात्र मिलकर एक सम्पूर्णता का निर्वाह कर रहे हैं। 20 तीनों में निजता की प्रधानता है, तीनों प्रेम करते हैं, किन्तु तीनों उनके अलग-अलग स्वरूप को जानते और समझते हैं। इसलिए कट्टो प्लेटोनिक भाव की तरफ, सत्यधन दायित्व भाव की तरफ और बिहारी उत्सर्ग भाव की तरफ अग्रसर हो जाते हैं। जैनेद्र की दृष्टि में विवाह सामाजिक संस्था है, उससे परिवार बनता है। उसे केवल दो का निजी सम्बन्ध समझना और उस आधार पर विवाह को स्थापित करना गलत होगा, क्योंकि तब उसकी पूर्णता सामाजिक न होकर कामुक होगी। पति-पत्नी का सामाजिक होना आवश्यक है। देश, समाज और राष्ट्र के प्रति भी उनका कुछ कर्तव्य है जिसे घर की चहारदीवारी से बाहर आकर ही पूर्ण कर सकते हैं। जैनेन्द्र की दृष्टि में विवाह दायित्व लाता है और प्रेम मुक्त है। जैनेन्द्र जी की विवाह और प्रेम सम्बन्धी कल्पना 'विवर्त' में ही सफल हो सकी है। वहाँ विवाह और प्रेम समान्तर रूप में चलते हैं। दोनों सम्बन्धों में प्रेम और इज्जत का भाव विद्यमान रहता है। प्रेमी और पति को लेकर मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न नहीं होती। पति आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न, अत्यन्त सुशिक्षित और निःशंक प्रकृति के हैं। इसलिए पति की
20 डॉ. मनमोहन सहगल - उपन्यासकार जैनेन्द्र : मूल्याकन और मूल्याकन, पृष्ठ-108 21 जैनेन्द्र कुमार - काम, प्रेम और परिवार, पृष्ठ-19 22 जैनेन्द्र कुमार - इतस्तत, पृष्ठ -35
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