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धीरे-धीरे लेखक की निपुणता और व्यक्ति चेतना के सूत्र में उसके हाथ आने लगते हैं और यदि पाठक प्रबुद्ध हुआ तो वह कथानक में डूवकर उनके द्वारा सूत्रों से कुछ नीचे अथाह में गोता लगाकर उन रत्नो को बटोरने में भी सफल हो जाता है, जैसा जैनेन्द्र का चिन्तक कथाकार अपनी कृतियों मे बिखेरता चलता है। 'मृणाल' के कथनों को पढकर कोई साधारण व्यक्ति भले ही बुरा-भला कहे, किन्तु सुधी विचारक को उसके पीछे छिपी करुणा का साक्षात्कार होगा और वह 'मृणाल' की आत्मपीड़ा से भी ज्ञान के बिन्दु एकत्रित कर ही लेगा। जैनेन्द्र अपने कथा साहित्य में कम से कम पात्रों का सृजन करते हैं। मुख्य पात्रों की संख्या कमी भी दो-चार से अधिक नहीं हुई है। इनमें एक न एक पात्र तीखे अहं का शिकार जरूर होता है। सभी पात्र व्यक्ति होने के कारण उस अहं की ग्रन्थि को, जिसका कारण समानता, काम, अमुक्ति, रूग्ण, आसक्ति अथवा कामना विशेष होती है, खोखले और कुंठित पात्र को नार्मल बनाने का प्रयास करते हैं। कही-कहीं तो ऐसे पात्रों में स्वाभाविकता लाने के कारण कथाकार ने कुछ स्त्री पात्रों से समर्पण तक करवाया है। यथा 'सुनीता' की सुनीता ने हरि प्रसन्न के प्रति और 'व्यतीत' की अनिता ने जयन्त के प्रति किया। जहां पात्र में सामान्यता लाने की अपेक्षा नहीं रही, वहां जैनेन्द्र ने शुद्ध आत्मपीडा को उसका श्रृंगार बना दिया है। ‘त्यागपत्र' की मृणाल अन्त तक आत्म पीड़ा की ज्वाला में जलती ही नहीं रही, वरन् वह आत्मव्यथा को जीवन का एक उच्च स्तरीय आयाम मानकर उसमें से उस ज्ञान की खोज करती है। इनके पात्रों की मुख्य समस्या यौन की है। इस क्षेत्र में असफल रहने पर प्रायः वे समझौता नहीं कर पाते और अपने तीव्र अहं से पीड़ित होकर असाधारणता को ग्रहण कर लेते हैं। इस सन्दर्भ में “परख' की कट्टो ही आदर्श की ओर झुक पायी है अन्य ‘सुनीता' का 'हरि प्रसन्न' कल्याणी की कल्याणी, ‘सुखदा' की सुखदा 'विवर्त' का जितेन ‘त्यागपत्र' की मृणाल 'मुक्तिबोध' की
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