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के लिए उपन्यास से अधिक समर्थ माध्यम दूसरा नहीं। आज के युग की बौद्धिक उथल-पुथल और भावगत अन्तर्द्वन्द्व को दैनिक जीवन और उसके परिवेश में स्थित करके तथा इन विभिन्न पक्षों के परस्पर सम्बन्ध और उपयोगिता को प्रकट करने के लिए कथा साहित्य बड़ी ही उपयुक्त विधा है। कथाकार अपने कथानक के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से मानव-जीवन एवं उसके युग से प्रेरणा ग्रहण करता है। वह उसकी अवहेलना नहीं कर सकता, क्योंकि वह उस वातावरण में सांस लेते हुए अपने साहित्य के यथार्थ का सृजन करता है। जीवन की सत्यता को कथाकार यथातथ्य रूप में नहीं रख सकता है। जीवन की यह अभिव्यक्ति यथार्थ होते हुए भी यथा तथ्य रूप में घटित नहीं होती है। कथाकार जब युग चेतना का यथार्थ चित्रण करता है तो वह युग द्रष्टा की भूमिका को निभाता है, लेकिन युग द्रष्टा की भूमिका निभाने के लिए उसे अपने भोक्ता जीवन पर निर्भर रहना पड़ता है। जिस कथाकार के कथा साहित्य में युग द्रष्टा एवं युग स्रष्टा इन दोनों का समन्वय पाया जाता है, उसे युग कथाकार की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। डॉ० लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय के शब्दों में -
'उपन्यास और काव्य के बीच सबसे बड़ा अन्तर यह है कि उपन्यास का सम्बन्ध वास्तविक जगत से होता है तो काव्य का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से। काव्यः मूलतः सर्जनात्मक, शाश्वत और निरपेक्ष है, उपन्यास प्रधानतः विश्लेषणात्मक है। 35 जीवन शक्ति कवि के पीछे और साहित्यकार के सम्मुख रहती है। काव्य अप्रत्यक्ष रूप से जीवन की आलोचना है। उसमें कल्पना तत्व और सुख तत्व प्रधान होते हैं। कवि सपना देखता है और भावना का शब्द शिल्पी होता है। कवि अपने लिए सच्चाई बरतता है तो साहित्यकार समाज के लिए।
34 नेमिचन्द्र जैन - अधो साक्षात्कार, पृष्ठ - 10 35. डॉ० लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय - पश्चिमी आलोचना शास्त्र, पृष्ठ - 376-377
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