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व्यक्त भावनायें अवश्य युगीन होती हैं। युग चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाला साहित्य युगीन भावनाओं से भिन्न नहीं हो सकता, क्योंकि उसमे सांसारिक व्यक्तियों की भावनाएँ आन्दोलित होती रहती हैं। साहित्यकार सामाजिक उपादानों द्वारा चेतन मन पर पड़े संस्कारों की अवहेलना नहीं कर सकता है। कुछ पलों के लिए भले ही वह पृथ्वी से ऊपर उठ जाए, परन्तु उसे पृथ्वी पर उतरना ही होगा। वह अपने लौकिक व्यक्तित्व का विनाश नहीं कर सकता।
युग चेतना साहित्य के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि उसका धर्म है। जब वह अपनी वास्तविकता को छोड़कर समाज में फैली हुई राजनीति, नैतिकता, दार्शनिक भावना एवं धार्मिक प्रवृत्तियों से स्वयं को जोड़ देता है तब उसका वास्तविक रूप धीरे-धीरे नष्ट होने लगता है। अतः स्पष्ट है कि साहित्य युग की यथार्थ आवश्यकताओं से अपने आप को अछूता नहीं रख सकता है। वह न तो समाज की आवाज की अवहेलना कर सकता है और न ही संसार के कोलाहल से अपने को अलग कर सकता है। इस प्रकार साहित्य समाज के लिए और साहित्यकार साहित्य और समाज दोनों के लिए समर्पण की भावना रखता है। अनुभूतियों में विविधता होते हुए भी साहित्य समाज-सापेक्ष रहेगा, समाज-निरपेक्ष नहीं। कोई भी साहित्यकार अपने को सामाजिक दायित्वों से अलग नहीं कर सकता है। वह युगीन नीति, धर्म, आचार, आदि से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता है। उसके व्यक्तित्व में स्रष्टा और सामाजिक समन्वय सन्निहित होता है, अतः वह युगचेतना के प्रभाव से प्रभावित होता है। साहित्यकार सदैव इस बात के लिए चिन्तित रहता है कि वह समाज के सत् पक्ष को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर सके।
साहित्य जन जीवन का दर्पण होता है, इसीलिए साहित्यकार जन-जीवन की समस्याओं से पूर्णतया अवगत होता है। साहित्य भी
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