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सरिता के जल को सहेजे रहते हैं। यदि उनमें से कोई एक कूल टूट जाय तो सरिता अपनी सहज-स्वाभाविक गति खो देगी। एक युगचेता साहित्यकार अपनी रचना को सरिता के जल की तरह परम्परा और पृष्ठभूमि रूपी दो कूलों के बीच प्रवाहमान रखता है।
युग-प्रतिनिधि साहित्यकार जहाँ अतीत से कुछ ग्रहण करता है वहीं वह वर्तमान के प्रति सजग अवश्य रहता है। परम्परायें वर्तमान मे कथाकार को न केवल प्रेरणा एवं पथ निर्दिष्ट करती हैं बल्कि युग के प्रति उदार नवीन आशाओं की अद्भुत शक्ति प्रदान करती हैं। इस सम्बन्ध में जान लिविंग्स्टन के विचार द्रष्टव्य हैं
'हम लोग नवीन वस्तु के लिए अवश्य उत्सुक रहते हैं, किन्तु हमारा यह भी आग्रह रहता है कि जो परिचित है तथा जो अपना है, उससे भी सम्बन्ध अवश्य बना रहे। हम पुराने को चाहते तो हैं, परन्तु वह किसी न किसी रूप में नया अवश्य प्रतीत हो।
इस प्रकार हम सदैव यह प्रयत्न करते हैं कि नवीन से नवीन वस्तु प्राप्त करें, किन्तु पुरानी खोकर नहीं वरन् पुरानी के साथ नवीन का समझौता कर और नवीनपन लाने के लिए करते हैं। टी०एस० इलियट के कथनानुसार -
‘परम्परा का प्रवाह सतत् गतिशील है। इसके बिना वह निश्चित स्थिर एवं जड़ है। विकासशील जीवन में पुरातन प्रवृत्तियाँ भी परिवर्तित होती रहती हैं। कोई भी पुरातन वस्तु अथवा स्थिति अक्षुण्ण नहीं है, क्योंकि जीवन की प्रत्येक स्थिति किसी विशेष प्रवृत्ति का परिणाम होती है। वह सदैव न एक सी रहती है और न रह सकती है।18
17. जॉन लिविंग्सटन - कन्वेंशन एण्ट रिवोल्ट इन पोयट्री, पृष्ठ - 63 18. टी०एस० इलियट - ऑफ्टर स्टेन गॉड्स, पृष्ठ- 18-19
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