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सांस्कृतिक नीरस सिद्धान्त साहित्य के अंग बनकर प्रस्तुत होते हैं एवं उनकी नीरसता का इसमें परिहार हो जाता है। डॉ० प्रभाकर माचवे के शब्दों में -
‘परम्परा के कुछ अंश जीवित रहते हैं जो कि सप्राण नवीनतम में घुल-मिल जाते हैं, जबकि परम्परा का बहुत सा हिस्सा काई की तरह सड़ जाता हैं। परम्परा का जीवित अंश ही युग के साथ जुडा होता है, शेष नष्ट होकर अस्तित्वविहीन हो जाता है। परम्परा का वह अंश जो युग से सम्बन्ध स्थापित कर पृष्ठभूमि की भूमिका बनाता है, वह परवर्ती साहित्यकारों को मार्ग दिखाता है।
कला की शाश्वत धारा परस्पर-विरोधी मार्गों से बहती है। कभी तो वह परम्परा के आधार को स्वीकार करती है और कभी मुक्त होकर क्रान्तिकारिणी हो जाती है। यह मानव-स्वभाव की विशेषता है कि कभी उसे प्राचीन प्रवृत्तियों के अनुकूल चलना प्रिय लगता है और कभी वह दोनों को अपनाकर समन्वय करता है और इसी में उसे आनन्द आता है।15 युग की परिस्थितियाँ साहित्य की दिशा में परिवर्तन लाती हैं। राष्ट्र की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक क्रान्तियाँ प्राचीन परम्पराओं को नष्ट कर नवीन पृष्ठभूमि का निर्माण करती हैं। प्राचीन साहित्य से लेकर आज तक के साहित्य के अनुशीलन से मालूम होता है कि परम्पराएँ पृष्ठभूमि को बदल देती हैं और पृष्ठभूमि युगचेतना को जन्म देती है। साहित्य में मानव जीवन तथा उसके व्यापक अनुभवों को युग सापेक्ष्य चित्रित करने की परम्परा अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। डॉ० सुषमा धवन के अनुसार- ‘साहित्य-सृजन'
14. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2, सम्पादक - डॉ० धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 477 15. जॉन लिविंग्सटन - कन्वेशन एण्ड रिवोल्ट इन पोयट्री, पृष्ठ-87
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